Monday, March 14, 2011

गैर मौखिक व्यवहार (Non-verbal Vehaviour)

शारीरिक भाषा अमौखिक संचार,का एक रूप है जिसे शरीर की मुद्रा, इशारों, और आँखों की गति के द्वारा व्यक्त किया जाता है. मनुष्य अनजाने में ही इस तरह के संकेत भेजता भी है और समझता भी है. अक्सर कहा जाता है कि मानव संचार का 93% हिस्सा शारीरिक भाषा और परा भाषीय संकेतों से मिलकर बना होता है जबकि शब्दों के माध्यम से कुल संचार का 7% हिस्सा ही बनता है. लेकिन 1960 के दशक में इस क्षेत्र में कार्य करके ये आंकड़े देने वाले शोधकर्ता एल्बर्ट मेहराबियन ने कहा था कि ये दरअसल उनके अध्ययन के परिणाम के आधार पर हो रही एक गलतफहमी है. अन्य लोगों ने जोर दिया कि 'अनुसन्धान के आधार पर संचार में छिपे अर्थों का 60 से 70 प्रतिशत हिस्सा अमौखिक व्यवहार से प्रकट होता है. शरीर की भाषा किसी के रवैये और उसकी मनःस्थिति के बारे में संकेत दे सकती है. उदाहरण के लिए, यह आक्रामकता, मनोयोग, ऊब, आराम की स्थिति, सुख, मनोरंजन सहित अन्य कई भावों के संकेत दे सकती है. लोगों को पढ़ने की तकनीक अक्सर प्रयोग की जाती है. उदाहरण के लिए, साक्षात्कार के दौरान आमतौर पर शारीरिक भाषा को प्रतिबिंबित करके लोगों को निश्चिन्त अवस्था में लाने के लिए किया जाता है. किसी की शारीरिक भाषा को प्रतिबिंबित करना इस बात की तरफ संकेत देता है कि उसकी बात समझी जा रही है.
शारीरिक भाषा के संकेत का संचार से अलग भी कोई लक्ष्य हो सकता है. दोनों ही लोगों को ये बात ध्यान में रखनी होगी. पर्यवेक्षक अमौखिक संकेतों को कितना महत्व देते हैं ये वो स्वयं निर्धारित करते हैं. संकेतकर्ता अपने संकेतों को स्पष्ट करके अपने कार्यों की जैविक उत्पत्ति को प्रदर्शित करते हैं. शारीरिक अभिव्यक्तियाँ जैसे कि हाथ हिलाना, उंगली से इशारा करना, छूना, और नज़र नीचे करके देखना ये सभी अमौखिक संचार के रूप हैं. शरीर की गति और अभिव्यक्ति के अध्ययन को काइनेसिक्स या गतिक्रम विज्ञान कहते हैं. जब मनुष्य कुछ कहता है तो साथ ही अपने शरीर को गति देता है क्योंकि जैसा कि शोधकर्ताओं ने प्रदर्शित किया है. इससे 'संचार के कठिन होने पर भी बात कहने और समझने के लिए मानसिक प्रयास को मदद मिलती है.' शारीरिक अभिव्यक्तियाँ उस व्यक्ति के बारे में बहुत सी बातें प्रकट करती हैं जो उनका उपयोग कर रहा है. उदाहरण के लिए, इशारों द्वारा किसी खास बिंदु पर बल दिया जा सकता है या एक संदेश को आगे बढाया जा सकता है, आसन संचार में आपकी ऊब या रुचि को प्रदर्शित कर सकता है और स्पर्श प्रोत्साहन या चेतावनी जैसे भाव प्रकट कर सकता है.
• सबसे बुनियादी और शक्तिशाली शारीरिक भाषा संकेतों में एक है किसी व्यक्ति द्वारा छाती के पास अपनी दोनों भुजाएं बांधना . स्याह संकेत देता है कि वो व्यक्ति अनजाने में ही अपने और अपने आस पास के लोगों के बीच एक बाधा या दीवार बना रहा है. इसका मतलब ये भी हो सकता है कि उस व्यक्ति कि भुजाएं ठंडी हो रही हैं. यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है यदि वह व्यक्ति भुजाएं रगड़ता है. जब पूरी स्थिति शांतिपूर्ण हो तो इसका मतलब ये हो सकता है कि जिस बात पर चर्चा हो रही है उसके बारे में व्यक्ति गहराई से कुछ सोच रहा है. लेकिन एक गंभीर या टकराव की स्थिति में, इसका ये मतलब हो सकता है कि व्यक्ति विरोध व्यक्त कर रहा है. यह मतलब विशेष रूप से तब प्रदर्शित होता है जब वह व्यक्ति वक्ता से दूर जाने वाली और झुका होता है. एक कठोर या भावहीन चेहरे की अभिव्यक्ति अक्सर प्रत्यक्ष शत्रुता का संकेत समझी जाती है.
• लगातार आँखों में आँखें डालकर देखना यानि नज़रों का संपर्क बनाये रखने का मतलब होता है कि वक्ता क्या कह रहा है उसके बारे में व्यक्ति सकारात्मक सोच रखता है. इसका मतलब ये भी हो सकता है कि व्यक्ति को वक्ता पर इतना विशवास नहीं है कि वो बात करते समय वक्ता पर से अपनी नज़र हटा ले. नज़रों का संपर्क बनाये रखने में कमी नकारात्मकता का संकेत देती है. दूसरी ओर, चिंता या व्यग्रता का शिकार रहने वाले लोग अक्सर बिना किसी असुविधा के आँखों का संपर्क बनाने में असमर्थ रहते है. आँखों का संपर्क बनाना यानि नज़रें मिलकर बात करना अक्सर एक माध्यमिक और भ्रामक संकेत माना जाता है क्योंकि हमें इस बात की सीख बहुत शुरूआती स्तर से दी जाती है कि बोलते समय नज़रें मिलाकर बात करनी चाहिए. यदि कोई व्यक्ति आपकी आँखों में देख रहा है लेकिन उसकी भुजाएं छाती पर एक दुसरे से बंधी हुई हैं तो इस संकेत का मतलब ये है कि उस व्यक्ति को कोई चीज़ परेशां कर रही है और वो उस बारे में बात करना चाहता है. या नज़र से संपर्क बनाये हुए भी यदि कोई व्यक्ति इसके साथ साथ कोई निरर्थक कार्य या गति कर रहा है, यहाँ तक की आपको सीधे देखते हुए भी ऐसा कर रहा है तो इसका मतलब ये है कि उसका ध्यान कहीं और है. साथ ही ऐसे तीन मानक क्षेत्र भी हैं जहाँ देखना मनुष्य की तीन अलग-अलग मनःस्थिति को प्रदर्शित करता है. यदि व्यक्ति नज़र से पहले एक आँख पर दृष्टि डालता है फिर दूसरी और फिर माथे पर देखता है तो इसका मतलब ये है कि वो सामने वाले पर अधिकारपूर्ण भाव या स्थिति प्रकट कर रहा है. अगर वो पहले नज़र एक और फिर दूसरी आँख पर दृष्टि डेट हैं और उसके बाद नाक को देखता है तो इसका मतलब होता है इस वो एक ऐसे संचार का हिस्सा हैं जहाँ दोनों पक्ष बराबर स्तर रखते हैं और उनमें से कोई भी एक दुसरे से श्रेष्ठ नहीं है. आखिरी तरीका है कि दोनों आँखों में देखने के बाद होठों पर नज़र डाली जाए. यह रूमानी भावनाओं का एक मजबूत संकेत है.
• यदि निगाहें बचाकर बात की जाए या कानों को छुआ जाए या ठोड़ी को खरोंचा जाए तो ये संकेत करता है कि बात पर किसी तरह का अविश्वास है. जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की बात से सहमत नहीं है तो उसका ध्यान इधर उधर भटकता दिखता है और आँखें लम्बे समय तक सकहिं दूर देखती रहती हैं.
• सर का एक तरफ झुकाए रखना ऊबने का संकेत देता है यही संकेत तब भी मिलता है जब आप लगातार वक्ता की आँखों में देख रहे हैं लेकिन आपकी नज़र उसपर पूरी तरह केन्द्रित नहीं है. सर का एक तरफ झुका होना गर्दन में दर्द या दृष्टिमंदता का भी संकेत हो सकता है या फिर ये इस बात का भी संकेत दे सकता है कि श्रोता में कोई दृष्टिगत दोष है.
• बातों में रुचि का संकेत आसन या फिर काफी देर तक आँखों से संपर्क बनाये रखने से मिलता है. जैसे कि खड़े होकर ध्यान से सुनना.
• छल या किसी जानकारी को छुपाने की बात का संकेत तब मिलता है जब कोई बात करते समय अपना चेहरा छूता रहता है. बहुत ज्यादा पलक झपकाना इस बात का जाना माना संकेत है कि कोई झूठ बोल रहा है. हाल ही में, ये सबूत सामने आया है कि पलकें बिलकुल ना झपकाना भी झूठ बोलने को प्रदर्शित करता है और ये संकेत ज्यादा पलकें झपकाने की तुलना कहीं ज्यादा विश्वसनीय है.
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कुछ लोग (जैसे कि कुछ निश्चित अक्षमता वाले लोग या आत्मानुचिंतक वर्णक्रम वाले लोग) शारीरिक भाषा को कुछ अलग तरीके से समझते और प्रयोग करते हैं या कई बार कतई नहीं समझते या प्रयोग करते. उनके इशारों और चेहरे के भावों (या उनकी कमी) की व्याख्या यदि सामान्य शारीरिक भाषा के अनुसार की जाये तो कई बार ग़लतफ़हमी और गलत व्याख्या कर दी जाती है (विशेषकर यदि शारीरिक भाषा को बोली जा रही भाषा की तुलना में ज्यादा प्राथमिकता दी जाए). यह भी बताया जाना चाहिए कि अलग-अलग संस्कृति के लोग अलग-अलग तरीकों से शारीरिक भाषा की व्याख्या कर सकते हैं. उदाहरण सूची;
• घुटनों पर हाथ: तत्परता इंगित करता है.
• कूल्हों पर हाथ: अधीरता इंगित करता है.
• अपनी पीठ के पीछे अपने हाथों को बांधना: स्वयं पर नियंत्रण इंगित करता है.
• सिर के पीछे हाथ बंधना: विश्वास को इंगित करता है.
• एक पैर कुर्सी की बांह के ऊपर रखते हुए बैठना: उदासीनता इंगित करता है.
• पैरों और पगों को एक निश्चित दिशा में रखना: वो दिशा जिसके लिए सबसे ज्यादा रूचि महसूस की जाती है.
• बंधी हुई भुजाएं: अधीनता को इंगित करता है.
शारीरिक भाषा अमौखिक संचार का एक रूप है जिसमें किसी विशेष शैली के इशारे, आसन, और शारीरिक चिन्ह दूसरों के लिए संकेत की तरह कार्य करते हैं. मनुष्य कभी-कभी अनजाने में हर वक़्त अमौखिक संकेत का आदान-प्रदान करता रहता है.
कुछ शोधकर्ताओं ने कुल संचार में अमौखिक संचार को 80 प्रतिशत जितने बड़े हिस्से का दावेदार माना है जबकि हो सकता है कि ये 50-65 प्रतिशत तक ही हो. विभिन्न अध्ययनों से अलग-अलग महत्व का होना पाया गया है जिनमें से कुछ से पता चलता है कि प्रायः संचार चेहरे के भावों के ज़रिये ही कर लिया जाता है यानी बोली गई बातों की तुलना के 4.3 गुना अवसरों पर चेहरे के भाव ही संचार का माध्यम बनते हैं. दुसरे अध्ययन के अनुसार चेहरे के किसी शुद्ध भाव की तुलना में सपाट ध्वनि में कही गई बात चार गुना ज्यादा बेहतर ढंग से समझी जा सकती है. एल्बर्ट मेहराबियन 7% -38% -55% का एक नियम खोजने के लिए जाने जाते हैं जो कि ये प्रदर्शित करता है कि क्रमशः शब्द, स्वर और शारीरिक भाषा का कुल संचार में कितना योगदान है. हालांकि वो सिर्फ ऐसे मामलों की बात कर रहे थे जहाँ इस तरह के भाव या रवैये प्रकट किये जाते हैं जिनमें एक व्यक्ति ये कह रहा हो 'मुझे तुमसे कोई समस्या नहीं है!' जब लोग आमतौर पर आवाज के स्वर पर और शारीरिक भाषा पर ध्यान देते हैं बजाये कही गई चीज़ों के. यह एक आम गलत धारणा है कि ये सभी प्रतिशत सभी तरह के संचार के लिए लागू है.
अंतर्वैयक्तिक स्थान एक तरह के मनोवैज्ञानिक बुलबुले की तरह है जो हम तब महसूस कर सकते हैं जब कोई हमारे बहुत करीब खड़ा हो. अनुसंधान से पता चला है कि उत्तर अमेरिका में अंतर्वैयक्तिक स्थान के चार विभिन्न क्षेत्र हैं. पहला क्षेत्र है अन्तरंग जो कि छूने की स्थिति से लेकर अठारह इंच की दूरी तक होता है. अंतरंग दूरी वो स्थान है जिसके भीतर हम अपने प्रेमी, बच्चों, साथ ही साथ निकट परिवार के सदस्यों और दोस्तों को ही आने की अनुमति देते हैं. दूसरा क्षेत्र व्यक्तिगत दूरी कहा जाता है जो कि हमसे एक हाथ की दूरी से शुरू होता है; जोकि हमारे शरीर से अठारह इंच से शुरू होकर चार फीट दूर तक जाता है. हम दोस्तों या सहकर्मियों के साथ बातचीत करते समय और समूह चर्चाओं के दौरान व्यक्तिगत दूरी का प्रयोग करते हैं. अंतर्वैयक्तिक स्थान का तीसरा क्षेत्र सामजिक दूरी कहा जाता है और ये आपसे चार फीट दूर से शुरू होकर आठ फीट तक जाता है. सामाजिक दूरी अजनबियों, नए बने समूहों और नए परिचितों के लिए आरक्षित होती है. चौथा क्षेत्र सार्वजनिक दूरी कहा जाता है और ये उस पूरे स्थान पर होता है जो आपसे आठ फीट से अधिक दूरी पर हो. यह क्षेत्र भाषणों, व्याख्यानों, थियेटर आदि के लिए प्रयोग होता है आवश्यक रूप से सार्वजनिक दूरी का क्षेत्र वह क्षेत्र है जो श्रोताओं के बड़े समूह के लिए आरक्षित हो. लोग आमतौर पर शरीर की भाषा के माध्यम से अन्य लोगों में यौन रुचि प्रदर्शित करते हैं, हालांकि इसका सटीक रूप और सीमा संस्कृति, युग और लिंग के हिसाब से बदलती है. इस तरह के कुछ संकेतों में शामिल हैं अतिरंजित इशारे और गतियाँ, गूँज और प्रतिबिंबित करना, घेरती हुई दृष्टि से देखना, पैरों को एक दुसरे पर चढ़ाना, घुटने किसी की तरफ इंगित करना, बाल उछालना या छूना, सर मोड़ना, पेडू को घुमाना, कलाई दिखाना, कपडे ठीक करना, हँसना, या मुस्कुराना, नज़रें मिलाना, छूना, खेलना, या करीब आना. लैंगिक रूप से उत्तेजित होने पर मनुष्य कई शारीरिक संकेत भी देते हैं जैसे पुतली का फैलना.
हाल ही में, मानव स्वभावजन्य संकेतों के अध्ययन में भारी रुचि देखी गई है. इन संकेतों का अध्ययन संवादात्मक और अनुकूली मानव मशीन प्रणाली विकसित करने के लिए उपयोगी हो सकती है. अनैच्छिक मानवीय भाव जैसे कि आँखों को मीचना, ठोढ़ी को आराम देना, होठों को छूना, नाक खुजाना, सर खुजाना, कान खुजाना, और उँगलियों को आपस में मोड़ना जैसे कुछ उपयोगी संकेत कुछ विशेष बातों के लिए कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ देते हैं. कुछ शोधकर्ताओं ने इन भावों और संकेतों को शैक्षिक प्रयोगों के विशिष्ट विषयों में उपयोग करने की कोशिश की है
हर कोई अपनी भावना या विचार का इजहार करने के लिए किसी न किसी तरीके का इस्तेमाल करता है। यह आवश्यक नहीं है कि संवाद कायम करने के लिए हमेशा जुबान से बोले जाने वाले शब्दों का ही इस्तेमाल किया जाए। कभी कभी शरीर की भाषा जुबान से अधिक स्पष्ट और ताकतवर होती है। कई बार वक्ता अपनी बातों के साथ कई तरह की भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह वक्ता द्वारा बोली जाने वाली बातों को सकारात्मक या नकारात्मक तरीके से मदद करता है। इतना ही नहीं यह वक्ता के बारे में उन बातों को भी बताता है, जो वक्ता कहना नहीं चाहता है। मसलन उसकी सोच और विचार के बारे में जाने-अनजाने कई राज उगल देती हैं हमारी भाव-भंगिमाएं।कई बार हम वाक्य को अधूरा छोड़ कर उसे भाव भंगिमाओं या शरीर की भाषा के माध्यम से पूरा करते हैं, क्योंकि कई बार कुछ बातें बोलने में असुविधाजनक होती है। कई बार हम जुबान से बोले जाने वाले एक साधारण से वाक्य या शब्द को शारीरिक हाव-भाव से एक विशेष अर्थ भी देते हैं।इसलिए शारीरिक हाव-भाव जैसे चेहरे की भंगिमा, हाथों का इशारा, देखने का तरीका या शारीरिक मुद्रा, आदि का संवाद में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। याद कीजिए कई बार हम सिर्फ मुस्कराकर, ऊंगली दिखाकर, हाथों से इशारा कर कितना कुछ कह जाते हैं। हम अपनी मुद्राओं के माध्यम से हालांकि कुछ न कुछ तो कहते ही रहते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि हमारी मुद्राओं को देखने वाला व्यक्ति भी हमारी मुद्राओं के वही अर्थ समझे, जो हम वाकई कहना चाहते हैं। क्योंकि एक ही मुद्रा का अर्थ अलग-अलग समाज और संस्कृति में अलग लगाया जा सकता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारी मुद्राएं हमारे बारे में इतना कुछ कहती हैं कि कई बार हम यह महसूस भी नहीं कर सकते हैं। एक ही शब्द अलग-अलग भंगिमा के साथ कहे जाने पर कभी गंभीर तो कभी अपमानजनक तौर पर ली जा सकती है। संप्रेषण विज्ञान पर काम करने वाले शोधार्थियों का मानना है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसके साथ यदि सही शारीरिक भाषा को भी जोड़ दिया जाए, तो हम उसके अर्थ का अधिक-से-अधिक सटीक संप्रेषण करने में सफल हो सकते हैं। यहां कुछ शारीरिक भंगिमाओं और मुद्राओं और उनके अर्थ की एक सूची दी जा रही है, लेकिन अलग-अलग परिस्थितियों में इसके अर्थ बदल भी सकते हैं। मुद्राएं (अर्थ) आगे की ओर पसरा हुआ हाथ (याचना करना),मुखाकृति बनाना (धीरज की कमी या अधीर), कंधे घुमाना फिराना या उचकाना (विदा होना, अनभिज्ञता जाहिर करना),मेज पर उंगलियों से बजाना (बेचैनी), मुट्ठी भींचना और थरथराना (गुस्सा), आगे की ओर उठी और सामने दिखती हथेली (रकिए और इंतजार कीजिए), अंगूठा ऊपर उठा हुआ (सफलता), अंगूठा गिरा हुआ (नुकसान), मुट्ठी बंद करना (डर), आंख मींचना (ऊबना), हाथ से किसी एक दिशा की ओर इशारा करना (जाने के लिए कहना),तेज ताली बजाना (स्वीकृति), धीरे से ताली बजाना (अस्वीकार, नापसंदगी). आज के जमाने में जब हर आदमी के पास समय बहुत कम होता है, ये मुद्राएं संवाद में बहुत काम आ सकती हैं और संप्रेषण में बहुत कारगर हो सकती हैं। भाषण, प्रस्तुति आदि में इन मुद्राओं का इस्तेमाल कर हम किसी खास विचार, भाव का आसानी से संप्रेषण कर सकते हैं या आसानी से अपने पक्ष में माहौल बना सकते हैं।
अगर स्त्रियों की बात करें तो कई बार कम खूबसूरत स्त्रियां अपनी बॉडी लैंग्वेज के चलते पुरुषों को अपना दीवाना बना लेती हैं। बहुत सी युवतियों की चाल, उनके बैठने, देखने और बात करने का अंदाज भर पुरुषों के भीतर उनके प्रति चाहत भड़काने लगता है। कई बार उनकी आंगिक भाषा से यह अनायास झलकता है और कई बार कुछ स्त्रियों द्वारा जानबूझकर शरीर की भाषा तय की जाती है। स्त्रियों के शरीर की बनावट भी ऐसी होती है कि वे उसका इस्तेमाल बड़ी आसानी से पुरुषों के भीतर सेक्स की चाह भड़काने के लिए कर सकती हैं। खास तौर पर उनके वक्ष, कमर और जांघें पुरुषों के लिए हमेशा आकर्षण का विषय होती हैं। इतना ही नहीं स्त्रियों की कुछ हरकतें हमेशा पुरुषों के भीतर काम भावना को भड़काती हैं। मसलन उनके होठों की हरकत, अपनी जीभ पर जुबान फेरना या फिर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ खाना भी पुरुषों को दीवाना बना सकता है।स्त्रियां अपने सेक्सी लुक के प्रति भी जागरुक हो रही हैं। वे पहले के मुकाबले अपने चलने, उठने-बैठने के तरीके को लेकर ज्यादा सतर्क हो गई हैं। वे पहले की तरह अपनी सेक्स अपील को छिपाती नहीं है बल्कि उसे साफ या कई बार आक्रामक तरीके से सामने भी रखती हैं। पतली कमर, उन्नत स्तन और भरे हुए नितंब उनमें शर्म नहीं गर्व की भावना पैदा करते हैं।
पुरुषों के अंदाज शरीर की यह भाषा पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों में भी काम करती है। आम तौर पर किसी कमरे में धीमी और सधी चाल से प्रवेश करने वाला पुरुष वहां बैठी स्त्रियों का ध्यान अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। यह सधी चाल बताती है कि उसका अपने-आप पर कंट्रोल है। अब पुरुषों का खुद पर कंट्रोल होना सेक्स में कितनी अहमियत रखता है, शायद यह बताने की जरूरत नहीं... कई युवतियों को स्मोकिंग करने पुरुष भाते हैं, भले वे अपने भावी पति का सिगरेट पीना सख्त नापसंद करें।
जरा सोचिए, यदि ऑस्ट्रेलियाई तेज बॉलर के समक्ष कोई भारतीय बल्लेबाज लडखडाते कदमों से पहुंचे और कांपते हाथों से विकेट पर गार्ड ले, तो क्या होगा? सही सोच रहे हैं न आप-वह जल्दी ही पवेलियन लौट जाएगा। चलिए, सेंस बदलते हैं। कोई स्टूडेंट इंटरव्यू के लिए लडखडाते हुए कमरे में दाखिल हो और कांपते हाथों से अपने बायोडाटा की कॉपी इंटव्यूअर को सौंपे, तो क्या होगा? यदि उसने जल्द ही स्वयं को नहीं संभाला, तो एक्जिट गेट की ओर जल्द ही चल पडेगा। आत्मविश्वास की कमी हमारे जीवन में कितनी खलल पैदा करती है, यह सब शायद आपने भी कभी स्वयं में या फिर अपने मित्रों में महसूस किया होगा। क्यों होती है आत्मविश्वास में कमी, शायद इस स्तंभ में इतनी गहराई में जाने के लिए शब्द नहीं हैं। हां, कैसे आत्मविश्वास का सृजन किया जा सकता है, इस विषय में मैं 2008 में आठ कदम लेने की सलाह अवश्य दे सकता हूं :
1. यथार्थवादी बनिए : भरपूर आत्मविश्वास आपको सुपरमैन या सुपरवूमन नहीं बना सकता। आत्मविश्वास तो सिर्फ आपको अपनी क्षमताओं का पूरी तरह इस्तेमाल करते हुए सफलता की राह पर चलने में सहयोग भर दे सकता है। दूसरों से व्यर्थ की तुलना छोडिए और अपने लिए उपयुक्त राह पकडिए। अपने स्टैंडर्ड को ऊंचा रखिए और उन्हें निरंतर अपनी जीवनशैली, व्यवहार, संबंधों तथा प्रोफेशनल लाइफ में बढाते रहिए।
2. समझें अपनी श्रेष्ठता : किसी दिन कुछ घंटे आराम से बैठिए और रोजमर्रा की जिंदगी के बारे में सोचिए। आपको स्वयं में छोटे-छोटे कई सकारात्मक एवं उच्च कोटि के कौशल नजर आएंगे। परिजनों व मित्रों की भी सलाह ले सकते हैं। इनकी सूची बनाएं। इन खूबियों को निरंतर प्रयासों से बडा करने से ही आपमें अधिक आत्मविश्वास पैदा होना शुरू हो जाएगा।
3. नकारात्मकता का त्याग करें : स्वयं से पूछें, अब तक कहां पर आपकी नकारात्मक सोच ने आपको सकारात्मक नतीजे दिए हैं? अपने लक्ष्यों पर ध्यान दीजिए, लक्ष्य प्राप्ति के बाद की खुशी के बारे में सोचिए, सपनों को संवारिये और फिर हर नकारात्मक सोच को अपने मन पर विजय प्राप्त करते हुए विचारों की गोली से उडा दीजिए।
4. छोटी लडाइयां जीतें : आपको जीवन की एक बडी लडाई ही नहीं जीतनी है। छोटी-छोटी लडाइयां जीतकर ही आप संपूर्ण आत्मविश्वास के साथ विजय पथ पर चल सकेंगे। जैसे, फाइनल एग्जाम में अच्छे नंबर लाने से पहले हर क्लास टेस्ट में अधिक नंबर लाना अत्यंत आवश्यक है। इसी तरह यदि इंग्लिश लैंग्वेज में परेशानी होती है, तो सिर्फ एक कोर्स कर लेने मात्र से कुछ नहीं होगा। अपने लिए रोज की एक लडाई लडें-हर रोज 5 नए शब्द, हर सप्ताह 2 नए वाक्य। फिर देखिए अंग्रेजी भाषा पर की गई यह छोटी- सी विजय ही आपके आत्मविश्वास को कितना ऊंचा करती है।
5. गलतियों से सीखें : कहते हैं कि यदि मुंह के बल भी गिरे, तो जहां थे वहां से काफी आगे बढगए। गलतियों से घबराने के बजाय उसे प्राइस ऑफ लर्निग मानिए। हां, यदि वही गलती दुबारा करेंगे, तो केयरलेस कहलाएंगे।
6. सही करें बॉडी लैंग्वेज : कॉमेडी करने वाला एक्टर भी गंभीर हो सकता है। लेकिन एक्टिंग करते हुए वह सिर्फ कॉमेडी के हाव-भाव पर ही ध्यान देता है। अपने शरीर की भाषा पर ध्यान दीजिए। स्वच्छ शरीर, चेहरे पर मुस्कुराहट, शब्दों में मिठास, शरीर में चुस्ती और मन में टॉप ऑफ वर्ल्ड की सोच आत्मविश्वास में अवश्य इजाफा करेगी।
7. योजना बनाकर चलिए : दिन की शुरुआत अच्छे विचारों से हो, मन में निश्चय हो कि आज अमुक काम इतने बजे तक इस तरह से सफलता के साथ करना है, तो फिर किसी बात की कमी नहीं। कल और आने वाले हर दिन के लिए ऐसे ही तैयार रहें।
8. स्वयं को रिवार्ड दें : अपनी हर कामयाबी पर स्वयं को रिवार्ड अवश्य दें। इससे आत्मविश्वास बढेगा और कोई भी कार्य दोगुने उत्साह से कर पाएंगे। किसी ने सच कहा है, नो वन कैन मेक यू फील इनफीरियर विथाउट योर कंसेन्ट। हम यह जानते हैं कि शरीर स्वास्थ्य और ऊर्जा को लेकर प्राकृतिक तौर पर चिंतित रहता है। मनुष्य अपनी काया को दुरुस्त रखने के लिए पिछले 100 सालों से भी ज्यादा समय से लगा हुआ है। शरीर के किसी हिस्से में थोड़ी भी गड़बड़ी मचती है तो हम इसका अनुभव सहज भाव से कर लेते हैं।
हमें पता है कि जब हमारा शरीर ठीक से काम नहीं करता है तो यह समझते हुए देर नहीं लगती है कि कुछ-न-कुछ गड़बड़ चल रहा है। जब शरीर के स्तर पर कोई गड़बड़ी महसूस होती है तो उसे ठीक करने की कोशिश में हम जुट जाते हैं। हम डॉक्टर के नजदीक जाते हैं और मर्ज की दवा लेते हैं। हम अपनी तबियत ठीक करने के लिए तमाम उपायों का सहारा लेते हैं। शरीर को जिन उपायों से आराम मिलने की उम्मीद होती है, हम उसे अनिवार्य रूप से करने की कोशिश करते हैं। किसी भी बीमारी के लक्षण मसलन कैंसर, डायबिटीज, अथराइटिस, हाई ब्लड प्रेशर आदि के संकेत हमको नुकसान से आगाह करते हैं। हम जानते हैं कि अगर इनकी उपेक्षा की जाए तो निश्चित तौर पर इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। किसी मामले में अगर हम कुछ भी सामान्य से इतर महसूस करते हैं तो उसे सामान्य बनाने के लिए हरसंभव कोशिश करते हैं। हमारे शरीर को हमारी तबियत का अच्छा बुरा पता लग जाता है और अगर हमें अच्छा स्वास्थ्य लेकर जीना है तो शरीर की बात सुननी होगी। ठीक इसी तरह हमारा मन हमें यह बता देता है कि हमारे लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है? शरीर की पीड़ा एक अलार्म की तरह होती है। सुखद बात तो यह है कि आपके मन में उठने वाले भाव और आवेग हमें निर्देश देने का काम करते हैं। आप इन संकेतों के सहारे जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि कर सकते हैं। आपका मन प्राकृतिक तौर पर शांत अवस्था में रहता है तब आपके स्वास्थ्य के अच्छे रहने की गारंटी बढ़ जाती है। आपका मन जब भी अशांत होता है तब आपको कुछ खाली-खाली सा लगने लगता है।
इन हालात में निश्चित तौर पर आपको खालीपन सा महसूस होने लगता है। क्या आपको पता है कि मनुष्य का शरीर बहुत जटिल होता है। आपकी मानसिक जटिलताओं को मन की शांति बहुत हदतक कम कर
देती है। सबसे बेहतर तो यह है कि आप अपने मन में उठने वाले संकेतों को पकड़ने की कोशिश कीजिए। निश्चित तौर पर आपके मन की अशांति आपको पीड़ित करने का काम करती है। आपका शरीर एक दूत की तरह होता है। वह मन तक संकेत पहुंचाने का काम करता है। लेकिन सच तो यह है कि बहुत सारे लोग शरीर की भाषा को पकड़ पाने में असर्थ होते हैं। अगली कड़ी में इसपर चर्चा करूंगा।
आज लोग इतने जयादा व्यस्त रहते हैं कि न तो उनके पास अपने बारे में बताने के लिए और न ही आपके बारे में जानने का समय होता हैं बाँडी लैंेग्वेज द्वारा आप दूसरों को समझ या समझ सकते हैं शरीर की मूक भाषा है बाँडी लैंग्वेजं इसके आधार पर हम किसीभी व्यकिंत के अंदर बसे विचारों और मनोभावें को समझ सकते हैं आपके खड़+े होने का,काम करने का व बोलने का तरीका आपके अंदर केविचारों को प्रकट करने से पहले ही आपका परिचय दे देता हैं कई बार आपने देखा होगा कि किसी से बात करते हुए काफी समय हो जाता है तो वह कभी घाड़+ी देखने लगता है,या आपकी बातों का ढंग से जवब देने की बजाय गर्दन हिला कर या हां या "ठीक है" कह कर बात खत्म करने लगता हैं ये हावभाव यह दर्शाते हैं कि आपका बैठना या बात करना उसे अच्छा नहीं लग रहा है,अत: ऐसे हावभावें से अपने आपको बचाना चाहिए नहीं तो आपके व्यकिंतत्व पर बुरा असर पड़+ता हैं ♦ हाथ मिलाने का तरीका भी हमारे उस व्यकिंत के साथ संबंधों को बताता हैं हाथ मिलाने के साथसाथ गर्मजोशी भी होनी चाहिए जिससे सामने वले को यह महसूस हो कि उसको मिलना आपको अच्छालग रहा हैं ♦ बातें करते समय हाथ बांधाकर खड़+ा होना अपकी घाबराहट को दर्शाता है व सामने वला यह सोचने लगता है कि आप उससे रक्षात्मक रूख अपना रहे हैं ऐसा करने से वह व्यकिंत आपसे दूर रहने की कोशिश करेगां ♦ कमर पर हाथ रखकर बातचीत न करें हमेशा सतर्क बैठ कर या सीघो खड़े होकर बातें करें इससे आपकी बातों का असर जयादा होगां ♦ बातें करते समय हाथों की मुद्राएं ठीक होनी चाहिए क्योंकि कई बार हम बोलते तो सोच समझ कर हैं पर हमारे हाथों की मुद्राएं कुछ और ही कह जाती हैं अत: हाथों को घुमाकर बातचीत नहीं करनी चाहिए. सही वक्यों के साथ सही मुद्राएं काफी अच्छा प्रभाव डालती हैं जो आपके व्यकिंतत्व को भी निखारता हैं ♦ कभी भी आंखें झुका कर बातें नहीं करनी चाहिए आंखें झुका कर बात करने को लोग आंख चुरा कर बात करना भी कहते हैं. हमेशा नजरें मिला कर बात करने वला ईमानदार व विश्वसपात्र माना जाता हैं इससे आपका आत्मविश्वस भी सामने वले को नजर आता हैं अत: आंखें मिला कर बातें करें ♦ स्पर्श एक ऐसा एहसास है जिसके प्रति संवेदनशील होना बाँडी लैंग्वेज का ही महत्वपूर्ण अंग हैं इससे आपको दूसरे को जानने व अपनी सि्थति उनके बीच मजबूत करने में सहायता मिलती हैं♦ हमेशा मुस्कुरा कर हर किसीसे मिलेंं मुस्कुराता चेहरा सबको र्पिय लगता हैं मुस्कान ऐसा यंत्र है जो आप मेंआत्मविश्वस लाता है और इसी आत्मविश्वस के कारण लोग आपकी बातों से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि आप की बात की उपेक्षा नहीं कर पातें

Saturday, March 12, 2011

यौन शिक्षा (Sex education) एक विस्तृत संकल्पना है

यौन शिक्षा (Sex education) एक विस्तृत संकल्पना है जो मानव यौन अंगों , जनन, संभोग या रति क्रिया , यौनिक स्वास्थ्य, जनन-सम्बन्धी अधिकारों एवं यौन-आचरण सम्बन्धी शिक्षा से सम्बन्धित है। माता-पिता एवं अभिभावक, मित्र-मण्डली, विद्यालयी पाठ्यक्रम, सार्वजनिक स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम आदि यौन शिक्षा के प्रमुख साधन हैं।हमें युवाओं पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकताओ क्यों होती है? क्या शादी के समय जनन स्वास्थ्य प्रारम्भ नहीं होता? भविष्य में भारत की जनसंख्या की वृद्धि किस प्रकार होगी, यह बात 15-24 वर्ष की आयु वर्ग वाले लोगों सहित 1890 लाख लोगों पर निर्भर करती है। शिक्षा और रोजगार के अवसरों के अलावा, यौन जनन स्वास्थ्य के संबंध में सूचना और मार्गदर्शन देने के लिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना, जनसंख्या और विकास कार्यक्रमों का एक महत्वपूर्ण पहलू है। किशोर यौन और जनन स्वास्थ्य कार्यक्रम उन्हें उत्तरदायी और ज्ञात निर्णय लेने योग्य बनाते हैं।
यह विशेषतः उन युवा महिलाओं के मामले में अधिक महत्वपूर्ण है जिन्हें ऐसे अधिकार दिए जाने चाहिए जिससे वे अपने यौन और जनन जीवन पर नियंत्रण रखने, अवपीड़न, पक्षपात और हिंसा से मुक्त रहने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकें। कामुकता के बारे में, यौन संबंध के बारे में और अवांछित गर्भधारण करने से बचने और यौन संचारित रोगों के बारे मे बेहतर सूचना प्राप्त होने से युवा लोगों के जीवन स्तर मेंसुधार आएगा। किशोर लड़कियों और लड़कों पर ध्यान केन्द्रित करने के महत्व के समर्थन में निम्नलिखित तथ्य दिए जाते हैः
1. भारत में 15-19 वर्ष की आयु वर्ग वाली लड़कियों में स लगभग 25 प्रतिशत लड़कियां 19 वर्ष की आयु होने से पहले बच्चे को जन्म दे देती हैं।
2. 18 वर्ष की आयु होने से पहले ही गर्भधारण करने से स्वास्थ्य के लिए बहुत से जोखिम पैदा हो जाते हैं। 20-24 वर्ष की आयु वाली महिलाओं की अपेक्षा कम उम्र वाली लड़कियों की गर्भावस्था या प्रसव के दौरान मृत्यु होने की बहुत संभावना होती है।
3. तरुण माताओं के अधिक बच्चे होते हैं क्योंकि वे गर्भनिरोधकों का प्रयोग नहीं करना चाहती।
4. अन्तर्राष्ट्रीय योजनाबद्ध पितृत्व संघ के अनुसार भारत मे होने वाले गर्भपातों में से 14 प्रतिशत तरूण महिलाएं कराती हैं।
5. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूं. एन. एफ. पी. ए.) के अनुसार यदि पहले बच्चे के जन्म के लिए मां की आयु 18 वर्ष से 23 वर्ष तक कर दी जाए तो इससे जनसंख्या संवेग में 40 प्रतिशत से अधिक गिरावट आसकती है।
6. एच. आई. वी./एड्स पर संयुक्त राष्ट्र के संयुक्त कार्यक्रम के अनुसार भारत में एच. आई. वी. संक्रमण से पीड़ित लोगों में से लगभग आधे लोग 25 वर्ष से कम आयु वाले हैं।
क्या किशोर - किशोरियों को यौन शिक्षा देने से स्वच्छन्द संभोग को बढ़ावा मिलता है?
नही, इस प्रचलित विश्वास के विपरीत यौन शिक्षा स्वच्छन्द संभोग को बढ़ावा नहीं देती वस्तुतः ऐसे कार्यक्रम असुरक्षित यौन संबंध से जुड़ी चिंताओं को दूर करते हैं और सुरक्षित यौन संबंधों को प्रोत्साहि करते हैं। यौन शिक्षा कार्यक्रमों पर लिखे गए 1050 वैज्ञानिक लेखों का विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा की गई समीक्षा में अनुसंधान कर्ताओं ने यह देखा कि "इस विवाद का कहीं कोई समर्थन नहीं किया गया कि यौन शिक्षा से यौन अनुभव प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है या क्रियाकलापों में वृद्धि होती है। यदि कोई प्रभाव नजर आता है तो वह अपवाद से रहित है क्योंकि यह मैथुन स्थगित करने और/या गर्भनिरोध का प्रभावी प्रयोग करने की दिशा में है।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि उचित और समय पर सूचना उपलब्ध कराने में असफल रहना- "अनैच्छिक गर्भ के अवाछित परिणामों और यौन संचारित रोगों के संचारण को कम करने के अवसर समाप्त कराना है, और इसलिए इससे हमारे युवाओं को हानि होती है"।
किशोर जनन और स्वास्थ्य कार्यक्रमों में माता-पिता और समाज को विश्वास में लेना चाहिए ताकि एक ऐसा वातावरण तैयार किया जा सके जिससे किशोर अपने विकल्पों का प्रयोग कर सकें। एक ऐसी समाकलित पहुंच के अभाव में इस गतत भय के आधार पर कार्यक्रम का विरोध किया जा रहा है इससे स्वच्छन्द संभोग को बढ़ावा मिलेगा। लड़के और लड़कियों दोनों को एक साथ लेकर कार्य करने की आवश्यकता है ताकि वे लड़के-लड़कियां यौन और जननप्रक्रियाओं के महत्व को न समझ सकें। यह यौन अधिकारों की उचित जानकारी देता है और उनका उचित उपयोग करना भी बताता है।
अधिक उम्र में शादी करने से जनसंख्या स्थिरीकरण पर किस प्रकार से प्रभाव पड़ता है?
शादी, भारतवर्ष मेंलगभग सार्वभौमिक है। शादी के समय की आयु का सीधा संबंध महिलाओं को उपलब्ध शिक्षा और रोजगार के अवसरों से होता है। अशिक्षित और/या बोरोजगार महिलाओं की अपेक्षा बेहतर शिक्षा प्राप्त रोजगार में नियुक्त महिलाएं देर से शादी करती हैं। शादी के समय न्यूनतम आयु 1960 के दशक में 17 वर्ष थी। जो 1990 के दशक में बढ़ाकर 20 वर्ष कर दी गई है। फिर भी, लगभग 43 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष की आयु होने से पहले ही कर दी जाती है जो कि महिलाओं के लिए भारत में शादी की वैध आयु है। कम आयु में शादी करने के अन्य कारणों में से एक कारण यह भी है कि लड़की अपना कौमार्य नष्ट कर सकती है जिसके संरक्षण के लिए परिवार को उत्तरदायी माना जाता है और शादी करके इस उत्तरदायित्व का निर्वाह कर दिया गया है, ऐसा माना जाता है।
प्रायः जल्दी शादी होने से गर्भ भी जल्दी रह जाता है, जैसा कि अधिकांश महिलाएं शादी के बाद शीघ्र ही गर्भवती हो जाती हैं क्योंकि उन्हें गर्भनिरोधक सेवाओं की जानकारी और पहुंच का अभाव होता है तथा शादी के प्रथम वर्ष के भीतर ही एक उत्तराधिकारी देने के लिए उन पर परिवार का दबाव होता है। दूसरी तरफ, बच्चा पैदा करके अपना "पौरूष" सिद्ध करने की इच्छा शादी के तुरंत बाद गर्भनिरोधक विधियों का प्रयोग करने से रोकती है। बच्चे को जन्म देना शादी की सुरक्षा के रूप मे देखा जाता है क्योंकि जब उसकी पत्नी उसके बच्चे की मां होती है तब अपनी पत्नी का उत्तरदायित्व संभालने का भार उस पर और बढ़ जाता है। जब किसी महिला के बच्चे पैदा नहीं होते तो पति-पत्नी के संबंधों का विच्छेद होना और पत्नी को छोड़ देने के मामले बहुत ही सामान्य हो गए हैं। किशोर अवस्था में शादी के तुरंत बाद या अन्यथा गर्भ रह जाने से तो मां और बच्चे के स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा बढ़ जाता है। बच्चों की मृत्यु हो जाने पर दंपत्ती और बच्चे पैदा करना चाहते हैं। इस वृहत स्तर पर जल्दी शादी करने और जल्दी बच्चा पैदा करने के परिणाम स्वरूप पीढियां तेजी से बदलती हैं, जनसंख्या स्थिरीकरण में बाधा उत्पन्न होती है, चाहे दंपत्ती एक या दो बच्चे पैदा ही क्यों न करें।
गर्भ निरोध क्या है?
विभिन्न साधनों में से किसी भी एक साधन के जरिए गर्भधारण करने को जानबूझ कर रोकना ही गर्भनिरोध कहलाता है। सामान्यतः जन्म-नियंत्रण या गर्भनिरोध वह है जो किसी महिला को गर्भवती होने से रोकता है। गर्भनिरोध का सबसे स्वरूप संयम बरतना है। तथापि, कामवासना से अलग रहने से ही स्वाभाविक मानवीय काम प्रेरणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है। चिकित्सा पद्धति के अनुसार विभिन्न साधनों के जरिए गर्भ निरोध किया जा सकता है जो अस्थायी या स्थायी हो सकता है ताकि जो लोग संयम नहीं बरत सकते वे गर्भधारण करने पर नियंत्रण पा सकते हैं।कितने और कितने अंतराल पर बच्चे पैदा हो यह स्वतंत्र और विश्वसनीय रूप से निश्चित करने तथा ऐसा करने से संबंधित सूचना शिक्षा और साधनों की जानकारी प्राप्त करने के अधिकार को जनन अधिकार का महत्वपूर्ण घटक माना जाता है गर्भनिरोधकों से पुरूष और महिलाएं इन अधिकारों का प्रयोग कर सकती हैं।
भारत वर्ष में "मिश्रित विधि" के गर्भनिरोधक प्रयोग की पद्धति क्या है?
आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने हमारे समक्ष गर्भनिरोधक के कई विकल्प प्रस्तुत किए हैं। गर्भ रोकने के विभिन्न विधियों के प्रयोगों की वितरण पद्धति को "मिश्रित विध" कहा जाता है भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां महिलाओं का बन्ध्यीकरण नलबन्दी करना एक प्रमुख विधि मानी जाती है जिसे अधिकांश दंपती अपने परिवार का वांछित आकार रखने के लिए इस विधि को पसंद कर रहे हैं तथा स्थायी विधि के रूप में इसे अपना रहे हैं।
हम अपने जनसंचार अभियानों के बावजूद भी लोगों के गर्भनिरोधक व्यवहार में परिवर्तन लाने में सफल क्यों नहीं हुए?
जनसंचार अभियान उत्पाद दिखाने, सूचना देने, रूचि पैदा करने और जनता की राय को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखते हैं। वे लोगों को दुकान तक ले जा सकते हैं लेकिन वे उत्पाद खरीदने के लिए उन्हें मजबूर नहीं कर सकते। उत्पाद की अन्तर्निहित गुणवत्ता, विक्रयकला, उत्पाद प्रयोग करने के लिए प्रलोभन और विक्रय के बाद सेवाएं उपलब्ध कराना आदि ऐसे तत्व हैं जो अन्ततः उत्पाद खरीदने और सफलतापूर्वक उनका प्रयोग करने के निर्णय को प्रभावित करते हैं।
प्रायः जब गर्भनिरोधक के प्रयोग करने की बाद आती है तो इन मूलभूत तत्वों की उपेक्षा कर दी जाती है तथा उच्च स्तर के संचार कौशल की मांग की जाती है क्योंकि इस स्तर पर व्यक्तिगत रूप से संपर्क रखा जाता है और विकल्पों के बारे में सूचना उपलब्ध कराई जाती है। 1960 और 1970 के दशक के अत्यंत सफल जन संचार अभियानों ने गर्भनिरोधक के बारे प्राप्त विश्व का ज्ञान भारत में उपलब्ध कराया। तथापि, वे अभियान उस सूचना को कार्यरूप में बदलने में असफल रहे क्योंकि सेवाएं उपलब्ध कराने में स्वास्थ्य प्रणाली लड़खड़ा गई। परिवर्तन प्रक्रिया के भिन्न-2 चरणों में लोग भिन्न-2 प्रकार के संचार की मांग करते हैं। परिवर्तन प्रक्रिया के विभिन्न चरणों (समझना, प्रयोग करना, अपनाना और समर्थन करना) में परामर्श देने, सेवा उपलब्ध कराने अनुवर्ती सेवा और अवसर सृजित करने की मांग की जाती है ताकि इन विधियों को अपनाया जा सके। ऐसी क्रमबद्ध संचार नीति को व्यवहार परिवर्तन संचार भी कहा जाता है जो एक दशक पूर्व तक उपलब्ध नहीं थी या प्रचालन में नहीं था।
भारत में अंतराल-विधि का प्रयोग इतना मंद क्यों हैं? अंतराल विधि के कम (मंद) प्रचलन के निम्नलिखित कारण हैं-
1. इन विधियों की जानकारी का अभाव/उन तक पहुंच का अभाव।
2. परामर्श देने और अनुवर्ती सेवाओं का स्तर बेहतर न होना।
3. महिला के स्वास्थ्य की स्थिति अच्छी न होने जैसे कि अरक्तता, जननली में संक्रमण और यौन संचारित बीमारियों के होने के कारण उत्पन्न जटिलताओं से संबंधित विधि का प्रभाव।
4. मां और बच्चे के स्वास्थ्य के साथ गर्भनिरोधक सेवाओं का सामंजस्य स्थापित करने के कारण कण्डोम का प्रयोग करना कठिन हो जाता है क्योंकि इस कार्य में पुरूष को शामिल किया जाना अपेक्षित है। तथापि, एच.आई. वी/एड्स के खतरे को देखते हुए दोहरी संरक्षण विधि के रूप में कण्डोम के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
5. दंपत्ती थोड़े समय में ही वांछित बच्चे पैदा करके नसबंदी/नलबंदी करा लेते हैं, जिससे अंतराल विधि की उनकी आवश्यकता कम हो जाती है।
6. परिवार कल्याण कार्यक्रम के अंतर्गत बन्ध्यीकरण पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने से अंतराल विधियों को अपनाने के अवसर कम हो जाते हैं।
7. प्रतिवर्ती विधियों का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित विशेषतः उव युवतियों (15-30 वर्ष) को प्रोत्साहित करने में भारत का परिवार नियोजनः कार्यक्रम पूर्णतः असफल हो चुका है जो अपनी जनन अवधि के दौरान उन वर्षों में सबसे अधिक जननक्षमतारखती है। आज छोट परिवार के बारे में संचार अभियान चलाना आसान हो चुका है, बन्ध्यीकरण को अधिक वरीयता दिए जाने के कारण दो बच्चों के बीच पर्याप्त अंतर रखने की विधि सफल नहीं हुई।
जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए बच्चों के जन्म के बीच पर्याप्त अंतर रखना महत्वपूर्ण क्यों है?
बच्चे कितने हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखे बिना, बच्चों के जन्म में अंतराल रखने का जनसंख्या स्थिरीकरण पर स्वतंत्र प्रभाव पड़ता है। दो क्रमिक गर्भों के बीच अंतराल या अंतर जनसंख्या वृद्धि के संवेग को कम करने में स्वभावतः सहायता करेगा क्योंकि जो बच्चे देर से पैदा होते हैं वे जनन स्तर पर भी देर से पहुंचते हैं।
अंतराल से मां और बच्चे का स्वस्थ रहना सुनिश्चित है जिससे बच्चे के जीवित रहने के अवसर बढ़ जाते हैं और इस प्रकार बड़े परिवार की इच्छा समाप्त हो जाती है। दो गर्भों के बीच अंतराल रखना केवल जन्म को कम करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जनसंख्या के जीवन को सुधारने के लिए भी महत्वपूर्ण है। पर्याप्त अंतराल रखने और कम बच्चों को जन्म देने से केवल मां और बच्चे का स्वास्थ्य ही बेहतर नहीं होता बल्कि पुरूषों और महिलाओं को उपलब्ध विकास के अवसरों में भी सुधार होता है चाहे वे अवसर शिक्षा, रोजगार या सामाजिक सांस्कृति सहभागिता से संबंधित हो। इनसे वांछित जनन क्षमता अर्थात बच्चों की उस संख्या में कमी आ जाती है जो एक दंपत्ती अपने परिवार में रखना चाहते हैं। अतः परिवार नियोजन की अस्थायी विधियों के माध्यम से दो गर्भों के बीच पर्याप्त अंतराल रखने को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों को विस्तृत रूप से प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है।
अंतराल विधियों को किस प्रकार से प्रोत्साहित किया जा सकता है?
अंतराल विधियों के प्रयोग को बढ़ावा देने की कुंजी एक तरफ तो संचार साधनों को बढ़ाना है और दूसरी तरफ दक्ष सेवाएं उपलब्ध कराना है। संचार के महत्व का पता इस तथ्य से लगता है कि विवाहित महिलाओं में से 99 प्रतिशत महिलाएं कम से कम एक आधुनिक गर्भनिरोधक विधि से परिचित हैं। तथापि, सभी विधियों को जानकर जो कि ज्ञात विकल्प के लिए पूर्वापेक्षित हैं, केवल 58 प्रतिशत महिलाओं को है और केवल 42 प्रतिशत किसी एक आधुनिक विधि का प्रयोग करती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि परामर्श देने और व्यक्तिगत रूप से सूचना देने के कार्य को स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा अपनी सेवा का अनिवार्य भाग के रूप में नहीं माना जाता जबकि ऐसा करना ज्ञात विकल्प के लिए अत्यंत अनिवार्य है।
संचार व्यवस्था और परामर्श सेवाएं उन मनगढंत कथाओं और गलत अवधारणाओं पर प्रकाश डालने के लिए अनिवार्य हैं जो विधि से संबंधित समस्याओं को और गहरा बना देती है जिनके कारण लोग गर्भनिरोधक का प्रयोग करना अनिवार्यतः बंद कर देते हैं। महिलाओं का अधिक सम्मान किए जाने और उन्हें विभिन्न विधियों तथा संबंधित पार्श्वप्रभावों के बारे में बता कर सशक्त बनाए जाने के आवश्यकता है ताकि ज्ञात विकल्प का चयन कर सके। अनुवर्ती देखरेख, विशेषतः जटिलताओं से संबंधित विधि के मामले में भी निर्णायक है। इसके साथ- साथ, अच्छी गुणवत्ता वाले गर्भनिरोधकों की उपलब्धता में सुधार लाना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके अभाव में कोई संचार संबंधी प्रयास सफल नहीं हो सकते। विभिन्न कार्यक्रमोम के अंतर्गत स्थानीय कार्यकर्ताओं एवं समुदाय आधारित सेवा प्रबंधकों के माध्यम से सामाजिक फ्रेचाइज और कार्पोरेट के माध्यम से सामाजिक विपणन का देश में परीक्षण किया जा रहा है।
कुछ दंपत्ती पुरूष बन्ध्यीकरण का विकल्प क्यों चुनते हैं?
काफी समय से भारत में जनसंख्या कार्यक्रम महिला केन्द्रित हो चुका है। अब वे दिन विदा हो चुके हैं जब नसबंदी या पुरूष बन्ध्यीकरण को एक विधि माना जाता था। गर्भनिरोध की स्थायी विधि अपनाने का विकल्प चुनने वाले दंपत्तियों में से 67.3 प्रतिशत ने 1963 में नसबंदी कराने का विकल्प चुना। यह विकल्प 1976 - 1977 के दौरान 77 प्रतिशत तक पहुंच गया लेकिन इसमें बहुत तेजी से गिरावट आई और 1980 - 1981 में 21.4 प्रतिशत, 1990 - 1991 में 6.2 प्रतिशत और 2000 - 01 में 2.3 प्रतिशत लोगों नें ही नसबंदी कराई। इस गिरावट का प्रत्यक्ष कारण ज्यादतियों का होना था, जबकि लक्ष्य पूरा करने के लिए बिना सोचे समझे जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। महिला बन्ध्यीकरण में लोपरोस्कोपिक तकनीकों के विकास एवं प्रोत्साहन ने इसे महिलाओं के लिए बहुत आसान बना दिया है। यद्यपि नसबंदी भी समान रूप से आसान है परन्तु फिर भी विभिन्न मनगढंत कथाओं और गलत धारणाओं के कारण इस विधि को वरीयता नहीं दी जा रही है। कामवासना और ताकत समाप्त हो जाने का भय, नसबन्दी का सफल न होना और जन्म पर नियंत्रण करना महिलाओं का उत्तरदायित्व मानना। इस प्रवृति के कारण इस विधि को बहुत कम लोगों द्वारा स्वीकार किया गया है। पुरूष बन्ध्यीकरण सेवाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के स्तर पर एवं नियमित आधार पर अपलब्ध करा कर तथा उन तक पहुंचाने के साधनों में वृद्धि करने के अलावा, जन संचार अभियानों के जरिए क्षेत्रीय स्तर पर और वृहत स्तर पर कार्यक्रम को एक सुदृढ़ संचार सहायता की आवश्यकता है।
यदि लोग अन्य विधियों की अपेक्षा किसी विधि विशेष को पसंद करते हैं तो उस विधि को बड़े स्तर पर प्रोत्साहित करने में क्या दोष है?
दंपत्तियों की गर्भनिरोधक आवश्यकताएं, उनकेजीवन की स्थिति पर निर्भर भिन्न-भिन्न होती हैं। उदाहरणार्थ- नव विवाहित दंपत्ति को अंतराल विधि की आवश्यकता हो सकती है। जबकि अपे परिवार का आकार पूरा कर चुके दंपत्ति को स्थायी विधि अपनाने की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार स्तनपान कराने वाली मां की आवश्यकताएं उस महिला से भिन्न होंगी जो कभी-कभी संभोग करती हैं। तार्किक दृष्टि से किसी भी विधि विशेष को बड़े स्तर पर अपनाना लोगों के लिए संभव नहीं है। आदर्शतः विभिन्न आयु वर्ग की और भिन्न पारिवारिक परिस्थितियों वाली महिलाओं और पुरूषों को उपलब्ध विभिन्न प्रकार की विधियों में किसी भी विधि को चुनने और उसे अपनाने का विकल्प प्राप्त होना चाहिए। किन्तु यदि सब विधियों में से किसी एक विधि को वरीयता दी जाती है तो यह अन्य विधियों के बारे अपर्याप्त सूचना और जानकारी होने, सेवा केन्द्रों तक सीमित पहुंच, लागत घटक या मनगढंत बातों और गलत धारणाओं के कारण होता है।
प्रायः यह कार्यक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संबंधित सेवा प्रबंधकों द्वारा किसी विधि विशेष को अत्यधिक प्रोत्साहन दिए जाने को भी दर्शाता है। जहां तक बन्ध्यीकरण का मामला है, यह अटल है, इसमें अनुवर्ती सेवा की सीमित आवश्यकता होती है और इसलिए अन्य विधियों की अपेक्षा बन्ध्यीकरण को प्रोत्साहित करने पर बल दिया जाता है। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि बन्ध्यीकरण को लोग स्वतः ही अपना रहे हैं और सब विधियों से इसे अधिक वरीयता दे रहे हैं। किसी एक या कुछ विधियों को ही प्रोत्साहन दिए जाने से जीवन की कतिपय परिस्थितियों में केवल महिलाओं के लिए ही गर्भनिरोधक विकल्प सीमित हो जाते हैं। इस प्रकार भारत में महिला बन्ध्यीकरण पर बल दिया जाने का आशय है कि जो महिलाएं अपने परिवार का वांछित आकार पूरा कर चुकी हैं केवल वही महिलाएं गर्भ निरोध के साधनों का प्रयोग करने के लिए योग्य है। जननक्षमता दरों में निरंतर गिरावट आऩे के कारण यह अनिवार्य है कि हमें अत्यधिक संतुलित "मिश्रित विधि" का प्रयोग करना चाहिए।
इंजेक्शन द्वारा दिए जाने योग्य गर्भनिरोधकों के चलन का भारत में कुछ लोग विरोध क्यों करते हैं?
नई गर्भ निरोधक टेक्नोलॉजी जैसे कि इंजेक्शन द्वारा दिए जाने योग्य, और आरोपित किए जाने वाले (इम्प्लान्ट) हार्मोनल आक्रामक प्रवृति के होते हैं, दीर्घकाल तक क्रियाशील रहते हैं और जब विकासशील देशों में उनका उपयोग महिलाओं को लक्ष्य करके किया जाता है। तब इनके दुरूपयोग की अधिक संभावना रहती है। इसके अलावा इंजेक्शन से दिए जाने योग्य गर्भनिरोधकों से स्वास्थ्य के लिए जोखिम होता है जो भारत में कमजोर शरीर महिलाओं द्वारा सुगाता से सहन नहीं किया जा सकता, इस प्रकार, इसका उपयोग तो आसानी से किया जा सकता है परन्तु यह इसके साथ-2 स्वास्थ्य संबंधी नई-2 समस्याओं को जन्म देता है जिससे महिला कहीं की भी नहीं रहती।
अधिकांश भारतीय महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति और उनकी जानकारी का स्तर अच्छा नहीं होता तथा इन पर आक्रामक टेक्नोलॉजी का प्रयोग किया जाता है तब उसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। इस टेक्नोलॉजी के प्रभावी प्रयोग के लिए स्क्रीनिंग और फॉलोअप मूल सिद्धांत है। चूंकि इन दोनों को उस प्रणाली में सुरक्षित नहीं माना जा सकता जिस पर अवसंरचना और मानव संसाधनों के लिए अधिक दबाव डाला जाता है। बहुत से लोग यह तर्क देते हैं कि ऐसी विधियों को चलन से दिए जाने योग्य गर्भनिरोधक भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के स्वास्थ्य कार्यक्रम और परिवार कल्याण कार्यक्रम के भाग नहीं है परन्तु बाजार में उपलब्ध है। यौन और जनन स्वास्थ्य पर प्राय पूछे जाने वाले प्रश्नःअध्याय पढ़ने के बाद आप निम्नलिखित विषयों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगेः1). औरतों और पुरूषों में जनन तंत्र 2). यौवनारम्भ 3). औरतों में जनन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं 4). स्तनपरक समस्याएं 5). मर्दों में जनन तंत्र के स्वास्थ्य की समस्याएं 6). यौन सम्भोग से संक्रमित इन्फैक्शन- एचआईवी/एड्स सहित 7). गर्भ निरोधक 8). गर्भ धारण 9). अनुर्वरकता 10). यौनपरक स्वास्थ्य 11). गर्भपात 12). रजो निवृति
औरतों और पुरूषों में जनन तंत्र
• 1. औरतों का जनन तंत्र कैसा होता है?
औरतों के जनन तंत्र में बाहरी (जननेन्द्रिय) और आन्तरिक ढाँचा होता है। बाहरी ढॉचे में मूत्राषय (वल्वा) और यौनि होती है। आन्तरिक ढांचे में गर्भाषय, अण्डाषय और ग्रीवा होती है।
• 2. बाहरी ढांचे के क्या मुख्य लक्षण होते हैं?
बाहरी ढांचे में मूत्राषय (वल्वा) और योनि है। मूत्राषय (वल्वा) बाहर से दिखाई देने वाला अंश है जबकि योनि एक मांसल नली है जो कि गर्भाषय और ग्रीवा को शरीर के बाहरी भाग से जोड़ती है। ओनि से ही मासिक धर्म का सक्त स्राव होता है और यौनपरक सम्भोग के काम आती है, जिससे बच्चे का जन्म होता है।
• 3 आन्तरिक ढांचे के क्या मुख्य लक्षण हैं?
आन्तरिक ढांचे में गर्भाषय, अण्डाषय और ग्रीवा है। गर्भाषय जिसे सामान्यत% कोख भी कहा जाता है, उदर के निचले भाग में स्थित खोखला मांसल अवयव है। गर्भाषय का मुख्य कार्य जन्म से पूर्व बढ़ते बच्चे का पोषण करना है। ग्रीवा गर्भाषय का निचला किनारा है। योनि के ऊपर स्थित है और लगभग एक इंच लम्बी है। ग्रीवा से रजोधर्म का रक्तस्राव होता है और जन्म के समय बच्चे के बाहर आने का यह मार्ग है। यह वीर्य के लिए योनि से अण्डाषय की ओर ऊपर जाने का रास्ता भी है। अण्डाषय वह अवयव है जिस में अण्डा उत्पन्न होता है, यह गर्भाषय की नली (जिन्हें अण्वाही नली भी कहते हैं) के अन्त में स्थित रहता है।
• 4 पुरूषों का जनन तंत्र कैसा होता है?
पुरूषों के जनन तंत्र में बाहर दिखाई देने वाला ढांचा होता है जिसमें लिंग और पुरूषों के अण्डकोष हैं। आन्तरिक ढांचे में अण्डग्रन्थि, शुक्रवाहिका, प्रास्टेट, एपिडिडाईमस और शुक्राषय होता है।
• 5 बाहरी ढांचे के मुख्य लक्षण क्या हैं?
लिंग मर्दाना अवयव है जिसका उपयोग मूत्रत्याग एवं यौनपरक सम्भोग के लिए किया जाता है यह लचीले टिशू और रक्तवाहिकाओं से बना है। अण्डकोष में लिंग दोनों ओर स्थित बाहरी थैलियों की जोड़ी होती है जिसमें अण्डग्रन्थि होती है।
• 6 आन्तरिक ढांचे के मुख्य लक्षण क्या हैं?
आन्तरिक ढांचे में अण्डग्रन्थि, शुक्रवाहिका, एपिडिडाईमस और शुक्राषय होता है। अण्डग्रन्थि अण्डाषय में स्थित अण्डाकार आकृति के दो मर्दाना जननपरक अवयव है। इनसे वीर्य और टैस्टोस्ट्रोन नामक हॉरमोन उत्पन्न होते हैं। पूर्ण परिपक्वता प्राप्त करने तक वीर्य एपिडाइमस में संचित रहता है। शुक्रवाहिका वे नलियां हैं जो कि वीर्य को शुक्राषय तक ले जाती हैं जहां पर लिंग द्वार से बाहर निष्कासित करने से पहले वीर्य को संचित किया जाता है। प्रॉस्टेट पुरूषों की यौन ग्रन्थि होती है। यह लगभग एक अखरोट के माप का होता है जो कि ब्लैडर और युरेषरा के गले को घेरे रहता है- युरेथरा वह नली है जो ब्लैडर से मूत्र ले जाती है। प्रॉस्टेट ग्रन्थि से हल्का सा खारा तरल पदार्थ निकलता है जो कि शुक्रीय तरल का अंश होता है जिस तरल पदार्थ मे वीर्य / शुक्राणु रहता है।
• 1. यौवनारम्भ क्या होता है?
यौवनारम्भ वह समय है जबकि शरीरपरक एवं यौनपरक लक्षण विकसमत हो जाते हैं। हॉरमोन मे बदलाव के कारण ऐसा होता है। ये बदलाव आप को प्रजनन के योग्य बनाते हैं।
• 2. यौवनासम्भ का समय कौन सा है?
हर किसी में यह अलग समय पर शुरू होता है और अलग अवधि तक रहता है। यह जल्दी से जल्दी 9 वर्ष और अधिक से अधिक 13-14 वर्ष की आयु तक प्रारम्भ हो जाता है। यौवन विकास की यह कड़ी सामान्यतः 2 से 5 वर्ष तक की होती है। कुछ किशोरियों में दूसरी हम उमर लड़कियों में यौवन के शुरू होने से पहले यौवन विकास पूरा भी हो जाता है।
• 3. लड़कों में यौवनारम्भ के क्या लक्षण है?
यौवनारम्भ के समय सामान्यतः लड़के अपने में पहले की अपेक्षा बढ़ने की तीव्रगति को महसूस करते हैं, विशेषकर लम्बाई में। कन्धों की चौड़ाई भी बढ़ जाती है। 'टैस्टोस्ट्रोन' के प्रभाव से उनके शरीस में नई मांसलता और इकहरेपन की आकृति बन जाती है। उनके लिंग में वृद्धि होती है और अण्डकोष की त्वचा लाल-लाल हो जाती है एवं मुड़ जाती है। आवाज गहरी हो जाती है, हालांकि यह प्रक्रिया बहुत धीरे-धीरे होती है फिर भी कोई आवाज फटने जैसा अनुभव कर सकता है। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक है, इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं होती। लिंग के आसपास बाल, दाड़ी और भुजाओं के नीचे बाल दिखने लगते हैं और बढ़ने लगते हैं। रात्रिकालीन निष्कासन (स्वप्नदोष या ^भीगे सपने') सामान्य बात है। त्वचा तैल प्रधान हो जाती है जिससे मुहासे हो जाते हैं।
• 4. लड़कियों में यौवनारम्भ के क्या लक्षण है?
शरीर की लम्बाई और नितम्बों का आकार बढ़ जाता है। जननेन्द्रिय के आसपास, बाहों के नीचे और स्तनों के आसपास बाल दिखने लगते हैं। शुरू में बाल नरम होते हैं पर बढ़ते- बढ़ते कड़े हो जाते हैं। लड़की का रजोधर्म या माहवारी शुरू हो जाती है जो कि योनि में होने वाला मासिक रक्तस्राव होता है, यह पांच दिन तक चलता है, जनन तंत्रपर हॉरमोन के प्रभाव से ऐसा होता है। त्वचा तैलीय हो जाती है जिससे मुंहासे निकल आते हैं।
• 5. यौवनारम्भ के दौरान स्तनों में क्या बदलाव आता है?
स्तनों का विकास होता है और इस्ट्रोजन नामक स्त्री हॉरमोन के प्रभाव से बढ़ी हुई चर्बी के वहां एकत्रित हो जाने से स्तन बड़े हो जाते हैं।
• 6. यौवनारम्भ के परिणाम स्वरूप औरत के प्रजनन अंगों में क्या बदलाव आता है?
जैसे ही लड़की के शरीर में यौवनारम्भ की प्रक्रिया शुरू होती है, ऐसे विशिष्ट हॉरमोन निकलते हैं जो कि शरीर के अन्दर के जनन अंगों में बदलाव ले आते हैं। योनि पहले की अपेक्षा गहरी हो जाती है और कभी कभी लड़कियों को अपनी जांघिया (पैन्टी) पर कुछ गीला- गीला महसूस हो सकता है जिसे कि यौनिक स्राव कहा जाता है। स्राव का रंग या तो बिना की जरूरत नहीं। गर्भाषय लम्बा हो जाता है और गर्भाषय का अस्तर घना हो जाता है। अण्डकोष बढ़ जाते हैं और उसमें अण्डे के अणु उगने शुरू हो जाते हैं और हर महीने होने वाली 'अण्डोत्सर्ग' की विशेष घटना की तैयारी में विकसित होने लगते हैं।
• 7. अण्डकोत्सर्ग क्या है?
एक अण्डकोष से निकलने वाले अण्डे के अणु को अण्डोत्सर्ग कहते हैं। औरत के माहवारी चक्र के मध्य के आसपास महीने में लगभग एक बार यह घटना घटती है। निकलने के बाद, अण्डा अण्डवाही नली में जाता है और वहां से फिर गर्भाषय तक पहुंचने की चार-पांच दिन तक की यात्रा शुरू करता है। अण्डवाही नली लगभग पांच इंच लम्बी है और बहुत ही तंग है इसलिए यह यात्रा बहुत धीमी होती है। अण्ड का अणु प्रतिदिन लगभग एक इंच आगे बढ़ता है।
• 8. उर्वरण क्या है?
यौन सम्भोग के परिणामस्वरूप जब पिता के वीर्य का अणु मां के अण्ड अणु से जा मिलता है तो उसे उर्वरण कहते हैं। जब वह अण्ड अणु अण्डवाही नली में होता है तभी यह उर्वरण घटित होता है। शिशु के सृजन के लिए अण्डे और वीर्य का मिलना और जुड़ना जरूरी है। जब ऐसा होता है, तब और गर्भवती हो जाती है।
• 9. रजोधर्म/माहवारी क्या है?
10 से 15 साल की आयु की लड़की के अण्डकोष हर महीने एक विकसित अण्डा उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा अण्डवाही नली (फालैपियन ट्यूव) के द्वारा नीचे जाता है जो कि अण्डकोष को गर्भाषय से जोड़ती है। जब अण्डा गर्भाषय में पहुंचता है, उसका अस्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके। यदि उस अण्डे का पुरूष के वीर्य से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है।
• 10. माहवारी चक्र की सामान्य अवधि क्या है?
माहवारी चक्र महीने में एक बार होता है, सामान्यतः 28 से 32 दिनों में एक बार।
• 11. मासिक धर्म/माहवारी की सामान्य कालावधि क्या है?
हालांकि अधिकतर मासिक धर्म का समय तीन से पांच दिन रहता है परन्तु दो से सात दिन तक की अवधि को सामान्य माना जाता है।
• 12. माहवारी मे सफाई कैसै बनाए रखें?
एक बार माहवारी शुरू हो जाने पर, आपको सैनेटरी नैपकीन या रक्त स्राव को सोखने के लिए किसी पैड का उपयोग करना होगा। रूई की परतों से पैड बनाए जाते हैं कुछ में दोनों ओर अलग से (Wings) तने लगे रहते हैं जो कि आपके जांघिये के किनारों पर मुड़कर पैड को उसकी जगह पर बनाए रखते हैं और स्राव को बह जाने से रोकते हैं।
• 13. सैनेटरी पैड किस प्रकार के होते हैं?
भारी हल्की माहवारी के लिए अनेक अलग-अलग मोटाई के पैड होते हैं, रात और दिन के लिए भी अलग- अलग होते हैं। कुछ में दुर्गन्ध नाषक या निर्गन्धीकरण के लिए पदार्थ डाले जाते हैं। सभी में नीचे एक चिपकाने वाली पट्टी लगी रहती है जिससे वह आपके जांघिए से चिपका रहता है।
• 14. पैड का उपयोग कैसे करना चाहिए?
पैड का उपयोग बड़ा सरल है, गोंद को ढकने वाली पट्टी को उतारें, पैड को अपने जांघिए में दोनों जंघाओँ के बीच दबाएं (यदि पैड में विंग्स लगे हैं तो उन्हें पैड पर जंघाओं के नीचे चिपका दें)
• 15. पैड को कितनी जल्दी बदलना चाहिए?
श्रेष्ठ तो यही है कि हर तीन या चार घंटे में पैड बदल लें, भले ही रक्त स्राव अधिक न भी हो, क्योंकि नियमित बदलाव से कीटाणु नहीं पनपते और दुर्गन्ध नही बनती। स्वाभाविक है, कि यदि स्राव भारी है, तो आप को और जल्दी बदलना पड़ेगा, नहीं तो वे जल्दी ही बिखर जाएगा।
• 16. पैड को कैसे फेंकना चाहिए?
पैड को निकालने के बाद, उसे एक पॉलिथिन में कसकर लपेट दें और फिर उसे कूड़े के डिब्बे में डालें। उसे अपने टॉयलेट मे मत डालें - वे बड़े होते है, सीवर की नली को बन्द कर सकते हैं।
• 17. मुंहासे से क्या होता है?
मुंहासे - त्वचा की एक स्थिति है जो सफेद, काले और जलने वाले लाल दाग के रूप मे दिखते हैं। जब त्वचा पर के ये छोटे - छोटे छिद्र बन्द हो जाते हैं तब मुंहासे होते हैं। सामान्यतः हमारी तैलीय ग्रन्थियां त्वचा में चिकनापन बनाए रखती है और त्वचा के पुराने अणुओं को निकालने में मदद देती है। किशोरावस्था में वे ग्रन्थियां बहुत अधिक तेल पैदा करती हैं जिससे कि छिद्र बन्द हो जाते हैं, कीटाणु कचरा और गन्दगी जमा हो जाती है जिससे काले मस्से और मुंहासे पैदा होते हैं।
• 18. मुहांसों के प्रभाव को कैसे कम किया जा सकता है?
मुंहासों के प्रभाव को कम करने के लिए निम्नलिखित स्व- उपचार की प्रक्रिया को अपनाये- (1) हल्के, शुष्कताविहीन साबुन से त्वचा को कोमलता से धोयें (2) सारी गन्दगी अथवा मेकअप को धो दें, ताजे पानी से दिन में एक दो बार धोयें, जिसमें व्यायाम के बाद का धोना भी शामिल है। जो भी हो, त्वाचा को बार-बार धोने या ज्यादा धोने से परहेज करें। (3) बालों को रोज शैम्पू करें, खासतौर पर अगर वे तेलीय हों। कंघी करें या चेहरे से बालों को हटाने के लिए उन्हें पीछे खीचें। बालों को कसने वाले साधनों से परहेज करें। (4) मुंहासों को दबानेर, फोड़ने या रगड़ने से बचने का प्रयास करें। (5) हाथ या अंगुलियों से चेहरो को छूने से परहेज करें। (6) स्नेहयुक्त प्रसाधनों या क्रीमों का परहेज करें। (7) अब भी अगर मुंहासे तंग करें, डाक्टर आपको और अधिक प्रभावशाली दवा दे सकता है या अन्य विकल्पों पर विचार विमर्श कर सकता है।
पुरूषों में जनन स्वास्थ्य की समस्य़ाएं
• हस्तमैथुन क्या होता है?
यौनपरक संवेदना के लिए जब व्यक्ति स्वयं उत्तेजना जगाता है तब उसे हस्तमैथुन कहा जाता है। हस्तमैथुन शब्द के प्रयोग से सामान्यतः यही समझा जाता है कि वह स्त्री या वह पुरूष जो कामोन्माद की चरमसीमा का तीव्र आनन्द पाने के लिए अपनी जननेन्द्रियों से छेड़छाड़ करता है। चरमसीमा का अभिप्राय उस परम उत्तेजना की स्थिति से है जिसेमें जननेन्द्रिय की मांस पेशयां चरम आनन्द देने वाली अंगलीला की कड़ी में प्रवेश करती हैं।
• क्या हस्तमैथुन सामान्य बात है?
हां, हस्तमैथुन प्राकृतिक आत्म अन्वेषण की स्वभाविक प्रक्रिया और यौन भावाभिव्यक्ति है।
• क्या यह सत्य है कि हस्तमैथुन 'सही सम्भोग' नहीं है। और केवल असफल लोग हस्तमैथुन करते हैं?
नहीं, यह सत्य नहीं है। कुछ यौन विशेषज्ञों के अनुसार जो लोग हस्थमैथुन करते हैं वे साथी के साथ यौन - सम्भोग करते समय बेहतर कार्य करतें हैं क्योंकि अपने शरीर को जानते हैं और उनकी कामाभिव्यक्ति सन्तुष्ट होती है।
• क्या हस्तमैथुन से विकास रूक जाता है या गंजापन उम्र से पहले आ जाता है।
यह सही नहीं है।
• खड़पान किसे कहते हैं?
खड़ेपन का अभिप्राय लिंग के बढ़ने, सख्त होने और उठने से हैं।
• खड़पन क्यों होता है?
स्वभावतः पुरूषों में लिंग का खड़ा होना जीवनभर चलता रहता है। किशोरावस्था में लड़कों में यह खड़ापन जल्दी होता है। शारीरिक अथवा यौनपरक उत्तेजना से खड़पना हो सकता है और उसके बिना भी हो सकता है। सामान्यतः खड़ापन सपनों से जुड़ा रहता है, किशोरों को एक ही रात में कम से कम दो और अधिक से अधिक छह बार इसकी अनुभूत हो सकती है।
• क्या दिन के समया खड़ापन सामान्य माना जाता है?
हां, पुरूष के शरीर का यह लिल्कुल सामान्य कार्य है, विशेषकर किशोरावस्था से गुजरने वाले लड़कों के लिए। कई बार खड़ापन यौनपरक उत्तेजना से होता है जैसे कि कोई मूवी देखना या यौनपरक कल्पना करने से। कई बार बिना किसी कारण के भी हो सकता है।
• गीले सपने क्या होते हैं?
सोते समय लिंग से वीर्य का अनियन्त्रित रूप से निकल जाना गीला सपना कहलाता है। इस तरल पदार्थ का रंग क्रीम जैसा या रंगविहीन होता है।
• गीले सपने कैसे होते हैं?
सपनों में यौन उत्तेजना होने पर या कम्बल, पलंग अथवा भरे हुए मूत्राशय से रगड़ लगने पर शारीरिक उत्तेजना से गीले सपने आते हैं।
• क्या गीले सपनों का आना प्राकृतिक क्रिया है?
किशोरावस्था में शरीर में होने वाले बहुत से परिवर्तनों में गीले सपने भी स्वभाविक हैं। सभी लड़कों को ये नहीं आते और तो भी ठीक ही हैं। यदि किसी को गीले सपने ने आते हों तो इसका यह अर्थ नहीं कि कुछ गलत है।
• क्या लिंग के माप कुछ महत्व हैं?
बहुत से लड़के लिंग के माप के औचित्य से सम्बन्धित प्रश्न पूछते हैं। यह एक स्वभाविक और सामान्य बात है विशेषकर यदि वह यौन सम्भोग न करता हो या करने की सोच रहा हो। लिंग का माप तो जिन सम्बन्धों पर आधारित रहता है जो कि माता-पिता से ग्रहण किया जाता है।
• क्या लिंग के माप के सम्बन्ध में कोई कुछ कर सकता है?
लिंग को घटाने या बढ़ाने के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता - किशोरावस्था से निकलकर जैसे ही आप एक लड़के से एक पुरूष के रूप में विकसित होते हैं लिंग भी विकसित हो जाता है।
• क्या लिंग का टेढ़ा होना सामान्य बात है?
खड़ा होने पर पुरूष के लिंग का हल्का सा दाएं या बाएं झुककर टेढ़ा होना अन्यन्त सामान्य बात है। कुछ पुरूषों के लिंग ऊपर की ओर भी मुड़ जाते हैं। यदि लिंग में अचानक कोई लम्प आ जाये जिससे वह अप्राकृतिक रूप से मुड़ जाये तो इसे डाक्टर ही देख पाएगा।
• क्या लिंग के माप का सम्भोग क्रिया पर कुछ प्रभाव पड़ता है?
सम्भोग परक या फिर प्रजनन के लिए किए जाने वाले कार्यों के लिए पुरूष के लिंग का माप काफी से बेहतर होता है। पुरूष को इस बात का पूरा भरोसा रखना चाहिए कि सम्भोग सुख या क्रिया से लिंग के माप का कोई सम्बन्ध नहीं होता। क्रिया का सम्बन्ध तो पुरूष की खड़ापन पाने और बनाये रखने की क्षमता या खड़ेपन अथवा बिना खड़ेपन के अपने आपको और अपने साथी को यौन परक सम्भोग का सुख देने में है अतः क्रिया, वस्तुतः माप पर नहीं - मांसपेशियों और प्रजनन अंगों की नाड़ी एवं रक्त आपूर्ति पर निर्भर रहती है। वास्तव में, यौन सम्भोग का सुख व्यक्ति की मनःस्थिति पर निर्भर करता है, अपनी और अपने साथी की जरूरतों के प्रति सम्मान पर निर्भर करता है। सम्भोग के दौरान, योनि का छिद्र किसी भी लिंग के लिए न तो बहुत छोटा होता है और न ही बहुत बड़ा क्योंकि यह एक 'खाली जगह' है जो कि मांसल तंतुओं से घिरी रहती है और सामान्यतः सभी माप के लिंगों को ग्रहण कर सकती है।
• अण्डग्रन्थि के क्षेत्र में पीड़ा के सामान्य कारण क्या हैं?
पीड़ा के सामान्य कारण हो सकते हैं
(1) घाव
(2) अण्डग्रन्थि में ऐंठन
(3) अण्डग्रन्थि में कैंसर।
• अण्डग्रन्थि का ऐंठन क्या होता है?
यह वह स्थित है जब कि वीर्य नली कहलाने वाली जिस सहारा देने वाली नली से अण्डग्रन्थि जुड़ी होती है उसी पर वे मुड़ जाती है जिससे कि अण्डग्रन्थि मे रक्त की आपूर्ति कट जाती है। ऐसे में अण्डकोश नीलवर्ण से बैंगनी रंग में बदल जाता है और बहुत पीड़ा देता है। यह रोग की आपातस्थिति होता है, एक दम बताना चाहिए।
• अण्डग्रन्थि में कैंसर में कौन सी चीजें खतरा पैदा करती है?
निम्नलिखित बातों से अण्डग्रन्थि में कैंसर की सम्भावना बढ़ जाती है। इनमें (1) जन्मजात समस्या जैसे कि नीचे न होने वाली अण्डग्रन्थि (2¬) पारिवारिक इतिहास (3) अण्डकोश में चोट लगने का इतिहास शामिल हैं।
• अण्डग्रन्थि में कैंसर के क्या सम्भावित प्रारम्भिक संकेत होते हैं?
प्रारम्भिक स्थिति में हो सकता है कि कोई संकेत न मिले क्योंकि इसमें दर्द नहीं होता। कई रोगी उसे हानिविहीन भी समझ सकते हैं और अपने फिजिशियन का ध्यान उधर ले जाने में देर हो सकती है। लक्षणों में शामिल है - (1) अण्डग्रन्थि मे छोटा, दर्द विहीव लम्प, (2) अण्डग्रन्थि का बढ़ना (3) अण्डग्रन्थि में या उरूमूल में भारीपन (4) अण्डग्रन्थि में पीड़ा (5) अण्डग्रन्थि की अनुभूति में बदलाव (6) पुरूष की छातियों और निप्पलों का बढ़ जाना (7) अण्डकोश में अचानक तरल पदार्थ या रक्त का भर जाना।
जन्म दर को कम करके जनसंख्या वृद्धि में कटौती करने को ही आम तौर पर जनसँख्या नियंत्रण माना जाता है. प्राचीन ग्रीस दस्तावेजों में मिले उत्तरजीविता के रिकॉर्ड जनसँख्या नियंत्रण के अभ्यास एवं प्रयोग के सबसे पहले उदाहरण हैं. इसमें शामिल है उपनिवेशन आन्दोलन, जिसमे भूमध्य और काला सागर के इर्द-गिर्द यूनानी चौकियों का निर्माण किया गया ताकि अलग- अलग राज्यों की अधिक जनसँख्या को बसने के लिए पर्याप्त जगह मुहैया कराई जा सके. कुछ यूनानी नगर राज्यों में जनसँख्या कम करने के लिए शिशु हत्या और गर्भपात को प्रोत्साहन दिया गया. अनिवार्य जनसंख्या नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की एक ही बच्चे की नीति जिसमें एक से ज्यादा बच्चे होना बहुत बुरा माना जाता है. इस नीति के परिणाम स्वरुप जबरन गर्भपात, जबरन नसबंदी, और जबरन शिशु हत्या जैसे आरोपों को बढ़ावा मिला. देश के लिंग अनुपात में 114 लड़कों की तुलना में सिर्फ 100 लड़कियों का जन्म ये प्रदर्शित करता है कि शिशु हत्या प्रायः लिंग के चुनाव के अनुसार की जाती है.
यह बात उपयोगी होगी अगर प्रजनन नियंत्रण करने को व्यक्ति के व्यक्तिगत निर्णय के रूप में और जनसंख्या नियंत्रण को सरकारी या राज्य स्तर की जनसंख्या वृद्धि की विनियमन नीति के रूप में देखा जाए. प्रजनन नियंत्रण की संभावना तब हो सकती है जब कोई व्यक्ति या दम्पति या परिवार अपने बच्चे पैदा करने के समय को घटाने या उसे नियंत्रित करने के लिए कोई कदम उठाये. अन्सले कोले द्वारा दिए गए संरूपण में, प्रजनन में लगातार कमी करने के लिए तीन पूर्वप्रतिबंध दिए गए हैं: (1)प्रजनन के मान्य तत्व के रूप में परिकलित चुनाव को स्वीकृति (भाग्य या अवसर या दैवीय इच्छा की तुलना में), (2)कम किये गए प्रजनन से ज्ञात लाभ, और (3) नियंत्रण के प्रभावी तरीकों का ज्ञान और उनका प्रयोग करने का कुशल अभ्यास. प्राकृतिक प्रजनन पर विश्वास करने वाले समाज के विपरीत वो समाज जो कि प्रजनन को सीमित करने की इच्छा रखते हैं और ऐसा करने के लिए उनके पास संसाधन भी उपलब्ध हैं. वो इन संसाधनों का प्रयोग बच्चों के जन्म में विलम्ब, बच्चों के जन्म के बीच अंतर रखने, या उनके जन्म को रोकने के लिए कर सकते हैं. संभोग (या शादी) में देरी, या गर्भनिरोध करने के प्राकृतिक या कृत्रिम तरीके को अपनाना ज्यादा मामलों में व्यक्तिगत या पारिवारिक निर्णय होता है, इसका राज्य नीति या सामाजिक तौर पर होने वाले अनुमोदनों से कोई सरोकार नहीं होता है. दूसरी ओर, वो व्यक्ति, जो प्रजनन के मामले में खुद पर नियंत्रण रख सकते हैं, ऐसे लोग बच्चे पैदा करने की प्रक्रिया को ज्यादा योजनाबद्ध बनाने या उसे सफल बनाने की प्रक्रिया को और तेज़ कर सकते हैं.
सामाजिक स्तर पर, प्रजनन में गिरावट होना महिलाओं की बढती हुई धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का एक अनिवार्य परिणाम है. हालाँकि, यह ज़रूरी नहीं है कि मध्यम से उच्च स्तर तक के प्रजनन नियंत्रण में प्रजनन दर को कम करना शामिल हो. यहां तक कि जब ऐसे अलग अलग समाज की तुलना हो जो प्रजनन नियंत्रण को अच्छी खासी तरह अपना चुके है, तो बराबर प्रजनन नियंत्रण योग्यता रखने वाले समाज भी काफी अलग अलग प्रजनन स्तर (जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या के सन्दर्भ में)दे सकते हैं, जो कि इस बात से जुड़ा होता है कि छोटे या बड़े परिवार के लिए या बच्चों की संख्या के लिए व्यक्तिगत और सांस्कृतिक पसंद क्या है.
प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण के विपरीत, जो मुख्य रूप से एक व्यक्तिगत स्तर का निर्णय है, सरकार जनसँख्या नियंत्रण करने के कई प्रयास कर सकती है जैसे गर्भनिरोधक साधनों तक लोगों की पहुँच बढाकर या अन्य जनसंख्या नीतियों और कार्यक्रमों के द्वारा. जैसा की ऊपर परिभाषित है, सरकार या सामाजिक स्तर पर 'जनसंख्या नियंत्रण' को लागू करने में "प्रजनन नियंत्रण" शामिल नहीं है, क्योंकि एक राज्य समाज की जनसंख्या को तब भी नियंत्रित कर सकता है जबकि समाज में प्रजनन नियंत्रण का प्रयोग बहुत कम किया जाता हो. जनसंख्या नियंत्रण के एक पहलू के रूप में आबादी बढाने वाली नीतियों को अंगीकृत करना भी ज़रूरी है और ज़रूरी है कि ये समझा जाए की सरकार जनसँख्या नियंत्रण के रूप में सिर्फ जनसख्या वृद्धि को रोकना नहीं चाहती. जनसंख्या वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार न केवल अप्रवास का समर्थन कर सकती है बल्कि जन्म समर्थक नीतियों जैसे कि कर लाभ, वित्तीय पुरस्कार, छुट्टियों के दौरान वेतन देना जारी रखने और बच्चों कि देख रेख में मदद करने द्वारा भी लोगों को अतिरिक्त बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है. उदाहरण के लिए हाल के सालों में इस तरह की नीतियों फ्रांस और स्वीडन में अपनाई गयीं. जनसंख्या वृद्धि बढ़ने के इसी लक्ष्य के साथ, कई बार सरकार ने गर्भपात और जन्म नियंत्रण के आधुनिक साधनों के प्रयोग को भी नियंत्रित करने की कोशिश की है. इसका एक उदाहरण है मांग किये जाने पर गर्भनिरोधक साधनों और गर्भपात के लिए वर्ष 1966 में रोमानियामें लगा प्रतिबन्ध.
पारिस्थितिकी में, कई बार जनसंख्या नियंत्रण पूरी तरह सिर्फ परभक्षण, बीमारी, परजीवी और पर्यावरण संबंधी कारकों द्वारा किया जाता है. एक निरंतर वातावरण में, जनसंख्या नियंत्रण भोजन, पानी और सुरक्षा की उपलब्धता द्वारा ही नियंत्रित होता है. एक निश्चित क्षेत्र अधिकतम कुल कितनी प्रजातियों या कुल कितने जीवित सदस्यों को सहारा दे सकता है उसे उस जगह की धारण क्षमता कहते हैं. कई बार इसमें पौधों और पशुओं पर मानव प्रभाव भी इसमें शामिल होता है. किसी विशेष ऋतू में भोजन और आश्रय की ज्यादा उपलब्धता वाले क्षेत्र की ओर पशुओं का पलायन जनसंख्या नियंत्रण के एक प्राकृतिक तरीके के रूप में देखा जा सकता है. जिस क्षेत्र से पलायन होता है वो अगली बार के लिए पशुओं के बड़े समूह हेतु भोजन आपूर्ति जुटाने या पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता है.
भारत एक और ऐसा उदाहरण है जहाँ सरकार ने देश की आबादी कम करने के लिए कई उपाय किये हैं. तेज़ी से बढती जनसँख्या आर्थिक वृद्धि और जीवन स्तर पर दुष्प्रभाव डालेगी, इस बात की चिंता के चलते 1950 के दशक के आखिर और 1960 के दशक के शुरू में भारत ने एक आधिकारिक परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किया; विश्व में ऐसा करने वाले ये पहला देश था.

Tuesday, March 8, 2011

RAJIV GANDHI MODAL COLLEGE FOR HIGHER LEARNING,JAI NAGAR,Distt.-BUNDI(RAJASTHAN)

The Gramin Vikas Samiti Manoli is committed to the cause of excellence in higher education in the filed of Humanities and Social Science, Languages, Education, Engineering, Technology and Management. Rajasthan is a state with total population of about 11 caror of people and the population rising substantially hence the need of highly educated Humanities, technical and Management professional is self evident. In order to meet the urgent need of quality technocrats in the state, the trust has decided to establish a modal college in the name and style of RAJIV GANDHI MODAL COLLEGE FOR HIGHER LEARNING,JAI NAGAR,BUNDI on Kota-Sawai Madhopur State Highway in (RAJASTHAN) -. This Institution will be self-financing and it is committed for quality education in Humanities and Social Science, Languages, Engineering, Technology and Management to aspiring students.
The State is actively promoting the participation of the private Sector in the industrial and the economic growth of the state. The State accepts its role in nurturing private economic activity and entrepreneurship. It recognizes generation of wealth in the Private Sector as necessary for the overall prosperity of the state. It will, therefore, endeavour to forge a meaningful partnership with industry, in policy formulation and its actual execution and implementation.Balanced Development of Tiny, Small & Heavy Sector;Small and tiny sectors play an important role in creating a large number of employment opportunities besides providing a wide range of goods and services. Therefore, the State shall create conditions for a balanced and harmonious growth of all segments of the Industrial Sector such as Heavy, Medium, Small and Tiny Sectors.Traditional industries, which have been the backbone of the State's economy, will be strengthened, augmented and made competitive in terms of quality, technology, design, packaging and marketing.Promotion of Exports; A facilitative atmosphere will be provided for the promotion of exports from the State and to enhance the competitiveness of exportable products.There is a tremendous potential for NRI investments in the State. The State shall create an attractive environment for them to invest in the State. Procedures and systems shall be so modified, as to facilitate their investment. Foreign investment is necessary for projects requiring large investments, like power, roads, bridges etc. The State shall attract foreign direct investment and create circumstances, where Rajasthan becomes the leading State in the country for foreign investments. ln order to achieve the overall objectives of the New Industrial Policy, the State shall ensure creation of an atmosphere of security to develop confidence in the entrepreneurs. Law & Order machinery will be toned-up [in a way to be responsive to the needs of industry. Over the years, the tertiary sector has emerged, as an important avenue of employment and economic activity. The State shall create an environment conducive to rapid development of this Sector free from unnecessary regulation. It is appreciated, that the process of industrialization of the State, should be a synergistic effort of industry and government. Industry will be consulted and involved in the formulation and implementation of policy.
In order to respond to the needs of specific segments of industry, a tailor-made support package will be evolved on a continuing basis, in consultation with the industry itself. The State, shall also develop, a package incentives and support services, to be extended for development of entrepreneurship in selected sectors, particularly in rural areas. Traditional industries and crafts will be supported and strengthened by provision of inputs to enhance their viability and competitiveness.The State, shall, also continuously review and revamp wherever necessary, the entire tax structure, so that it reflects the requirement and expectations of industry.Emphasis shall be laid, on promotion of such industrialization, which not only preserves the environment and cultural heritage of the State, but also revitalizes and forcefully reinforces it. In order to develop a culture of entrepreneurship, special emphasis will be laid on the up-gradation of It technical skills and entrepreneurial tools.
The Society Gramin Vikas Samiti Manoli was established and registered under the Society Act in July 2009 under the Rajasthan Society Registration Act 1958. The Society was established with the main objective of development of social, educational and intellectual level of boys & girls. The Trust also aims to develop new institutions for imparting higher education.The site is on 60.46 acres in area and is by all means suitable for a good academic ambient in rural area of Rajasthan state.

Vision and Mission of the Society
We firmly believe that educated, and well-informed youth are the building blocks of strong communities. We are committed to enriching the quality of education by ensuring right learning inputs to youth across ability levels. The Trust is committed to the vision of developing the proposed Institute into a multi- campus, inter disciplinary institution of excellence through symbiotic efforts and innovative practices of management and faculty to provide ambient academic environment for the benefit of the students and community at large.
The Mission of The Gramin Vikas Samiti Manoli is to build bridge of understanding between intellectual in the field of Engineering and Management, and society people in society through education and to promote educational excellence for children, and youth. Our aim is to impart, vibrant, comprehensive and innovative learning to our students enabling them to be managers, entrepreneurs, and leaders with strong cultural values and to provide and ideal teaching environment and ambience to develop there skills to meet the challenges of the global business environment.
The Mission of the Society further envisages, dedicated efforts to:
Adequately deploy Policy support and allocation of Resources by Management to develop multi ¬campus inter-disciplinary institutions.
Provide Academic Leadership for an ambient, academic and technological environment for the benefit of the Students and Community, through symbiotic efforts and innovative practices.
Optimally develop and utilize Institutional Infrastructure and student amenities to build and sustain a high quality teaching, learning and research environment.
Motivate faculty - student interaction for maximal knowledge synthesis for their successful career gain and placement.
Augment necessary inputs for students to develop as leaders of tomorrow and in the process provide humane professionals f-or the State, Country and Global requirements.
RAJIV GANDHI MODAL COLLEGE FOR HIGHER LEARNING; Institute of Humanities and Social Science, Languges, Engineering, Technology and Management is likely to come up in the forthcoming academic session 2011-12. This College has been established as self-financing Institution to provide quality education to aspiring students.
Secretary
Identified Programmes
1. Humanities and Social Science
UG courses of Honors and Pass Course
PG courses in Economics, Pol.Science, History, Tribal Studies, Education and other Disciplines’
2. Languages
1. UG courses of Honors in Indian and Foreign Languages
2. PG courses in Indian and Foreign Languages and others
3. Engineering, Technology and Management
1. B.Tech. in Computer Science & Engineering
2. B.Tech. in Information Technology
3. B.Tech. in Electrical and Electronics Engineering
4. B.Tech. in Electronics & Communication Engineering

Phase-wise Introduction of Programmes & Intake
Phase-I For UG Programmes with 60 Intake in each
Humanities and Social Science
1. UG courses of Honors and Pass Course
2. PG courses in Economics, Pol. Science, History, Tribal Studies, Education and other Disciplines’
Languages
1. UG courses of Honors in Indian and Foreign Languages
2. PG courses in Indian and Foreign Languages and others
Phase-II
1. B.Tech. in Computer Science & Engineering
2. B.Tech. in Information Technology
3. B.Tech. in Electrical and Electronics Engineering
4. B.Tech. in Electronics & Communication Engineering
Phase-llI Two UG Programmes with 60 Intake in each
1. B.Tech. in Mechanical Engineering
2. B.Tech. in Civil Engineering

And increase intake of 60 in each
1. B.Tech in Computer Science Engineering
2. B.Tech in Information Technology
Target Date for Start of Academic Programmes July 2011

Thursday, March 3, 2011

डॉ. राम लखन मीना: आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक

डॉ. राम लखन मीना: आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक: "आज की आधुनिक शिक्षा और गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा हमारे रहने, जीने, और सोचने का ढंग बदलती आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक व जीवनउपय..."

आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक

आज की आधुनिक शिक्षा और गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा हमारे रहने, जीने, और सोचने का ढंग बदलती आज की आधुनिक शिक्षा प्रणाली कितनी सार्थक व जीवनउपयोगी है हम भलीभाँती जानते है गाँधीजी ने "हिन्द स्वराज" (पुस्तिका) में लिखा था "अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है । जो लोग अंग्रेजी पढे हुए है, उनकी संतानों को नीति ज्ञान, मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की दूसरी भाषा सिखानी चाहिए "अन्य प्राचीन धर्मो की तरह वैदिक दर्शन की भी यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पन्दित है। सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात् पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, आग, वायु, जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब में दैवत्व की धारा प्रवाहित है। वैदिक दर्शन ने हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति गहन श्रद्धा और स्त्रेह से जीना सिखाया। इस दृष्टि का इतना अधिक प्रभाव था कि जब प्रकृ ति की गोद में स्थित एक आश्रम में पली-पोसी कालीदास की "शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त से मिलने के लिए शहर जाने लगी तो उसकी जुदाई से वे पौधे जिन्हें उसने सींचा, फूल जिनकी उसने देखभाल की, मृग जिन्हें उसने पोçष्ात किया आदि अत्यधिक दुखी हुए। यहां तक कि लताओं ने भी अपने पीले पत्ते झाड़कर रूदन करना शुरू कर दिया।
वह ऎसा युग था जब मानव व प्रकृति के बीच पूर्ण तादात्म्य और सीधा सम्पर्क था। आवश्यकताएं सीमित थीं, मनुष्य इतना संतोष्ाी था कि प्रकृति के शोषण की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था। प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध ही सभी धर्मो का मर्म था। समय ने करवट बदली। शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूट गया। तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। इस विकास का अर्थ था प्रकृति का उसके अस्तित्व की कीमत पर शोषण। एक तरफ जीवन की आवश्यकताओं व मन की इच्छाओं और दूसरी ओर विवेकपूर्ण आचरण की आवश्यकता के बीच संतुलन बिगड़ गया। दृश्य पदार्थ ने मानव जीवन की सूक्ष्म अदृश्य आत्मा को पराजित कर दिया। वैदिक लोकाचार ऎसे समग्र जीवन का उल्लेख करता है, जिसमें शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता हो। शरीर को आवश्यकता है रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख-सुविधाओं की। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों । लेकिन बुद्धि आवश्यकताओं को सीमित करने तथा इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए हमारा इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त नहीं हों। मैं आपके समक्ष जीवन के तीन बुनियादी पहलुओं को प्रस्तुत करना चाहूंगा, जो गहन पारिस्थितिकी के सिद्धान्तों से प्रगाढ़ रूप से जुड़े हुए हैं।
न केवल पारिस्थितिकी और टिकाऊ जीवन के लिए अपितु जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण के लिए भी धर्म और शिक्षा की भूमिका सबसे पहले आती हैं। आज शिक्षा व्यवसायोन्मुख हो गई है, जो केवल रोजी-रोटी कमाने तक सीमित रह गई है। धर्म, परम्पराएं पीछे छूट गए हैं, जो मूल्य-परक शिक्षा के स्रोत थे। वैदिक परिप्रेक्ष्य में मैं कहना चाहूंगा कि सिक्के की तरह मानव जीवन के भी दो पहलू हैं। एक दृश्य है और दूसरा है अदृश्य, जो हमारी इंद्रियों की समझ से परे है। वह कारण और कार्य भाव की तरह काम करते हैं। अदृश्य जगत ही दृश्य जगत का संचालन करता है। हमारे शरीर में बुद्धि, भावनाएं और आत्मा अदृश्य हैं। भारतीय जीवन पद्धति ने सदियों से दृश्य और अदृश्य के बीच संतुलन बनाए रखा है। मेरी समझ में आज प्राकृतिक पर्यावरण के अवकष्ाüण और वर्तमान कष्ट का एकमात्र कारण आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एकान्तिक दृष्टिकोण है। यह व्यावहारिकता और यथार्थवाद से कोसों दूर है। शिक्षा का प्रारम्भ इस एकमात्र लक्ष्य को लेकर हुआ कि सामाजिक दृष्टि से अच्छे इंसान तैयार हों। किंतु अब यह विकृत होकर ऎसी प्रणाली में बदल गई है जो शरीर और बुद्धि की बात तो करती है किन्तु मनुष्य का आध्यात्मिक और भावनात्मक दृष्टि से स्पर्श नहीं करती। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं। जितनी उच्च शिक्षा, उतना ही अधिक असंतुलन। आज कोई भी आत्मा के बारे में नहीं सोचता, जो शरीर में सौ वर्षो तक रहती है - यह शरीर ही जिसका वाहक है। यह मानव जीवन के उस महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा करती है, जिसमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा और अन्य मनुष्यों के हित की चिंता निहित है।
इसीलिए तथाकथित शिक्षित लोग ही पारिस्थितिकी और पर्यावरण समरसता के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। वे प्रकृति को जड़ वस्तु मानते हैं जो मानो मानव के उपयोग और "शोष्ाण के लिए ही बनी हो। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 1995 में प्रकाशित जनसंख्या व जीवन स्तर पर स्वतंत्र आयोग "इंडिपेंडेंट कमीशन ऑन पापुलेशन एंड क्वालिटी ऑफ लाइफ" की रिपोर्ट इस तथ्य को प्रकट करती है कि "मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक पर्यावरण बहुत महžवपूर्ण है। भावी पीढियों के लिए पर्यावरण का पोष्ाण और देखभाल आवश्यक है, जिसकी उपेक्षा की जा रही है।" माता-पिता द्वारा सृजित इस नश्वर शरीर में आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। आचरण या संस्कार की दृष्टि से दोनों के स्तर अलग-अलग हैं। शरीर में आत्मा दूसरे शरीर से आती है, जो आवश्यक नहीं कि मनुष्य का ही हो। वह पिछले जन्म के संस्कार भी साथ लाती है। मनुष्य की भूमिका से समरसता के लिए इन संस्कारों की पहचान और शुद्धीकरण की प्रक्रिया आवश्यक होती है। इसमें धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। क्योंकि वह जीवन की व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से सम्बन्धित होता है। यह सभी मजहबों से ऊपर है। क्योकि धर्म आत्मा से जुड़ा है और यह व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग है। मजहब अथवा सम्प्रदाय इसकी सामाजिक अभिव्यक्ति है।
आधुनिक शिक्षा ऎसी बुद्धि से जुड़ी है, जो व्यक्ति को रोजगार दिलाने में मदद करती है। मानवीय संवेदनशीलता के बजाए उसका सम्बन्ध विष्ायों से ज्यादा है। यह ह्वदय की संस्कृति विकसित करने का प्रयास नहीं करती। भावनात्मक दृष्टि से महिला पुरूष्ा से ज्यादा संवेदनशील मानी जाती है। वह भी समानता और महिला सशक्तीकरण के वैश्विक अभियान के लपेटे में आ गई है। वह भी मां और पत्नी की भावुक भूमिका की कीमत पर पुरूष्ा की बौद्धिक जीवन श्ौली की लालसा करने लगी है। पति-पत्नी को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। किन्तु व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण ऎसा हो नहीं रहा है। दोनों स्वावलम्बी और प्रतिस्पर्धी बने रहकर किसी भी समय एक-दूसरे से अलग होने को तैयार रहते हैं। भारत में ऎसा नहीं है। भारत में तो पति-पत्नी के सम्बन्ध मृत्यु के बाद भी नहीं टूटते हैं। स्वाधीनता, आर्थिक स्वतंत्रता और समानता के लिए संघष्ाü करने वाली महिला नारीत्व की प्राकृतिक भूमिका को अस्वीकार कर खुद प्रकृति को चुनौती दे रही है। केवल महिला ही है जो इस धरती पर ह्वदय की संस्कृति का निर्माण करने में सक्षम है, लेकिन हास्यास्पद है कि वह अब पुरूष्ा का अनुकरण करने में जुटी है। कैसे वह जीवन भर पुरूष्ा को आकçष्ाüत करके जोडे रख सकती है। समान ध्रुव में विकष्ाण होता है। उसका अदृश्य ह्वदय और आत्मा उसके अहम के साथ मेल नहीं खाते। आज शोष्ाण भी उसी का सबसे ज्यादा हो रहा है और पूरी दुनिया इसकी कीमत चुका रही है। मां की भूमिका को दोयम दर्जे का मान लिया गया है। महिला ही बच्चों में जीवन-मूल्यों और जीवन के उद्देश्य हस्तान्तरित करने की प्रकृति प्रदत्त क्षमता रखती है। मां को ही शिशु का प्रथम गुरू माना जाता है। जब वह खुद जीवन के संघष्ाोü में उलझ गई तो उसके पास बच्चों को जीवन-मूल्यों के संस्कार देने के लिए समय ही नहीं बचता, जिससे बच्चों को अनुभव होने लगे कि प्रकृति और मानव अविभाज्य हैं - एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
पृथ्वी पर पारिस्थितिकी संतुलन कायम रखने के लिए हमें गहराई में इसकी जड़ों तक जाना होगा। हमें मां के रूप की सबसे महžवपूर्ण भूमिका को फिर स्थापित करना होगा और हम सभी को उसमें श्रद्धा रखनी होगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर उसका रचनात्मक प्रभाव ही उन्हें संतुलित मानव बना सकता है। जो गूढ़ पारिस्थितिकी विज्ञान के सिद्धान्तों को अपना सके। जिनका उल्लेख अर्नेनैस ने अपनी पुस्तक "द इकोलॉजी ऑफ विजडम" में किया है। इस पुस्तक में पृथ्वी पर मानवीय और गैर-मानवीय जीवन के फलने-फूलने व जीवन के विविध रूपों की विविधता और समृद्धता पर जोर दिया गया है। यह जानना दिलचस्प होगा कि वेदों में धातु, जल, वायु और पृथ्वी जैसे निर्जीव तत्वों में भी जीवन माना गया है। इस विविधता और समृद्धता को कम करके हम अपने विनाश की ओर ही बढ़ेंगे। इस लक्ष्य के लिए भारत के वैदिक परिदृश्य में जीवन पुरूष्ाार्थ चतुष्टय पर आधारित है। ये चार पुरूष्ाार्थ हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पुरूष्ाार्थ का अर्थ है "आत्मा के लिए", जो एक अवधि के बाद शरीर से मुक्ति चाहता है। अर्थ या सम्पत्ति इस शरीर के लिए है। काम मानस से सम्बन्धित या इच्छाओं/ मनोभावों का केन्द्र है। अर्थ और काम पिछले जन्म के कर्माें को भी प्रकट करते हैं। ये पूरी तरह इस जन्म के प्रयासों पर आधारित नहीं होते। निश्चय ही, धर्म "वर्तमान" का प्रकाश-स्तम्भ है। वह कर्म की दिशा और गति तय करता है, जो किसी व्यक्ति के संकल्प या जीवन के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता के अनुरूप होती है। मनुष्य जब गर्भ में होता है तभी से धर्म नाभि-रज्जु के जरिए उसके साथ जुड़ता है। आधुनिक भाष्ाा में हम इस रज्जु को किसी व्यक्ति के धर्म का प्रतीक कह सकते हैं। इसके माध्यम से मां बच्चे के भविष्य का निर्धारण करती है। वह अपने शरीर व मन में हो रहे परिवर्तनों से इस आत्मा के स्वभाव को समझती है और आवश्यकता के अनुरूप कदम उठाती है। आधुनिक शिक्षित माताएं यह नींव नहीं रखतीं। जो जन्म के बाद में पढ़ाया जाता है वह "रिलिजन" है। इस नए दौर का बच्चा धर्म के बिना, अर्थ और काम के जरिए ही पलता-बढ़ता है। उस पर सामाजिक, नैतिक या धार्मिक किसी भी तरह की बंदिशें नहीं होतीं। इसलिए वह आत्मा की मुक्ति के चरण तक नहीं पहुंच सकता। समाज देखेगा कि उसकी नींव पर हमला करने वाले मानव के भेष्ा में पशु अधिकाधिक तैयार हो रहे हैं।
हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसे जड़ शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए और वह भी प्रेम और केवल प्रेम के द्वारा ही। अन्य कुछ भी हो, कुछ खास नहीं होगा। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बच्चों के संस्कार परिष्कृत करने, माताओं की प्रभावी शिक्षक की भूमिका फिर कायम करने और धर्म, अर्थ व काम के बीच समन्वय कायम रखने के कदम नहीं उठाए जाएंगे तो पारिस्थितिकी संकट दिनोंदिन गंभीर और बेकाबू होता जाएगा। गाँधीजी का "यंग इण्डिया" में प्रकाशित (१९२१) लेख के माध्यम से स्पष्ट कहाँ कि "यथार्थ शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से देना असम्भव है तथा प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए । " गाँधीजी ने अक्टुम्बर १९३७ में वर्धा के शिक्षा-सम्मेलन में कहाँ था कि "सवाल होता है कि प्राथिमक शिक्षा का स्वरुप क्या हो ? मेरा जवाब यह कि किसी उद्योग या दस्तकारी को बीच में रखकर उसके जरिये ही यह सारी शिक्षा दी जानी चाहिए । लड़को को कुछ भी सिखाया जाए, आप कह सकते है कि मध्यम युग में हमारे यहाँ लड़कों को सिर्फ धन्धए ही सिखाये जाते थे । मैं मानता हूँ, लेकिन उन धन्धों के जरिये सारी तालिम देने की बात लोगों के सामने न थी । धन्धा सिर्फ धन्धें के ख्याल से सिखाया जाता था । हम तो धन्धें या दस्तकारी की मदद से दिमाग को आला(बढिया) बनाना चाहते है मैं तो प्राथमिक शिक्षा के लिए कोई धन्धा आता हो तो निस्संकोच उसे सुझाइये, ताकि हम उस पर भी कर सकें । लकड़ी मुझे सबसे ज्यादा इसलिए जंचती है कि कि इसे छोड़कर और धन्धओं के लिए हमारे पास कोई सामान मौजूद नहीं है । अपने लिए शिक्षा का यही तरीका उपयोगी होगा बशर्ते कि हम अपने बालकों को शहरी न बनाना चाहें । हम तो उन्हें अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपने देश की सच्ची प्रतिभा का प्रतिनिधि बनाना चाहते हैं और मेरे ख्याल में स्वावलम्बी प्राथमिक शिक्षा के सिवा दूसरे ढ़ंग से हम उन्हें ऐसा बना नहीं सकते । इस मामले में यूरोप हमारा आदर्श नही बन सकता है, क्योंकि वह हिन्सा पर विश्वास करता है हमारे पास शिक्षा का इस अंहिसात्म योजना के सिवा और कोई उपाय ही कहाँ है । "शिक्षा का आरम्भ उद्योग और उसके द्वारा होना चाहिए ऐसा गाँधीजी मानते थे शिक्षा का मतलब केवल अक्षरी ज्ञान तक ही सीमित न रहना । शिक्षा के बारे में "हरिजन" नामक (८ सितम्बर१९३९) के एक लेख में लिखा कि मेरा मत है कि बुद्धि की सच्ची शिक्षा शारीरिक अंगों के उचित व्यायाम और अनुशआसन से प्राप्त हो सकती है शारीरिक अंगों के बुद्धिपूर्ण उपयोग से बालक का बोद्धिक विकास होता है । गाँधी जी का विश्वास था कि प्राथमिक शिक्षा में दस्तकारी को एक पृथक विषय रखने के बजाय उसके माध्यम से गणित, भूगोल, इतिहास इत्यादि पढ़ाना चाहिए ताकि दस्तकारी द्वारा बच्चे को त्रम की प्रतिष्ठा और स्वावलम्बन की भी शिक्षा दी जा सके । गाँधी जी किताबी ज्ञान अपेक्षा अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान को अधिक महत्व देते थे । शिक्षा मातृभाषा के माध्यम सी ही दी जानी चाहिए । राष्ट्रभाषा का बोल-समझ सकने वाला ज्ञान दिया जाए धार्मिक शिक्षा भी अनिवार्य रुप से दी जाए ताकि धर्म व संस्कृति का भी उसे ज्ञान मिल सके किताबी ज्ञान नही होना चाहिए शिक्षक के आचरण का भी विशेष महत्व उस बालक पर पड़ता है जो उससे शिक्षा हासिल कर रहाँ हो अतः शिक्षक का आचरण ठीक-ठाक हो बालकों को १६ वर्ष तक की आयु के बाद अपनी मातृभाषा की शिक्षा भी दी जानी चाहिए जैसे हिन्दु को हिन्दी व मुसलमान को अरबी भाषा का ज्ञान दिया जाना चाहिए उन्हें शारीरिक कार्यों के साथ अक्षरी ज्ञान का भी पाठ पढ़ाया जाए ताकि वे जल्द शिक्षा व्यवहारिक तौर पर सीख सकें । गाँधी जी ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर जो स्वप्न देखा था वह था कि - प्रत्येक शासन की सत्ता पर निर्भर न रहे । समाज में श्रम को ही गौरवपूर्ण और जीविका के क्षेत्र में वे स्वावलम्बी हो । व्यक्ति को एक नई दिशा देने के प्रयास में थे गाँधीजी शिक्षा के जरिये ।गाँधीजी का नजरिया शिक्षा के प्रति इस तरह का था वे सबी के लिए समान रुप से शिक्षा देने का प्रयास करने में हित समझते थे किताबी ज्ञान से वे शिक्षा के साथ साथ बच्चे को स्वावलम्बनी बनाने का सोचते थे ताकि वह व्यक्ति अपनी जीविका आसानी से चला सकें चाहे वह कितना ही गरीब क्यों न हो ? उनकी प्राथिमक शिक्षा की नीति गरीब लोगों की भावना को ध्यान में रखकर बनाई गई थी ।
आज की आधुनिक शिक्षा नीति ठीक इसके विपरीत है अभावनात्मक नीति यूरोपीयन छाप से प्रेरित जिसमें आम व्यक्ति से कोई सरोकार नही होता है उस शिक्षा का हमारे जीवन में क्या महत्व होगा किस दिशा की ओर हमें ले जाएगी हम स्वयं अनुमान लगा सकते है रटन प्रणाली से रटे हुए प्रश्नोत्तरों को परीक्षा परिणाम अंच्छे आने के उद्देश्य से रटे जाते है जो परिणाम आने के दो माह तक कुछ ज्ञान नही होता कि हमने किसी प्रकार का कितना रटा और परीक्षा परिणाम तक ही उसका उपयोग रहता है असल जीवन में उस रटन अध्यनावली कोई काम की नही होती है । अच्छे अंक प्राप्त करके हजारों की ताबाद में शिक्षित बेरोजगार युवक-युवतियाँ नौकरी पोने के लिए लायतित घूम रही है लाखों रुपयों की मँहगी किताबे पढ़कर वे चन्द डिग्री ही हासिल कर पाते है और वे डिग्रीयाँ भी मह्तवहीन जब होती है जब कि हमें हजारों प्रयास के बावजुद भी नौकरी न मिल सके और छोटा-मोटा काम-धन्धा तो हम कर ही नही सकते है क्योंकि आधुनिक शिक्षा पद्धति में रटन शिक्षा के अलावा कोई व्यवसायिक पाठ्यक्रम नही सिखाया जाता है जिसे हम आसानी से व्यवसाय के रुप में अपना सकें । हमारी शिक्षा नीति के आधुनिककरण के अलावा बढ़ती गरीबी और जनसंख्यां वृद्धि ने बेरोजगारी की समस्याँ ओर भी विकराल कर दी है हताश युवा गरीबी और बैरोजगारी से, रोज रोज पारिवारिक ताने सामाजिक जाने से परेशान जल्द अमीरी के स्वप्न संजोने में लग जाते है और अपराधिकता से नाता जोड़ लेते है जिससे स्वयं का अहित तो होता है, बल्कि समाज व राष्ट्र का भी जाने-अनजाने में अहित करने से नही कतराते है । अतः शिक्षा के साथ हमारी सोच भी आधुनिक यूरोपीय सोच से प्रभावित होकर अनीतिपूर्ण होने की वजह से हमें आत्मउत्थान का मार्ग नही मिल पाता है । अतः हमें उत्तम शिक्षा जो नीतिपूर्ण हो जो हमें भय व निराशा से भी मुक्ति दे सकें अनुशासित जीवन, आत्मसम्मान, कर्त्तव्यनिष्ठता, विश्वास, प्रेमाभाव से परिपूर्ण नीतिज्ञान जो एक श्रेष्ठ नागरिक बना सके ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई जाए जो शिक्षा के साथ स्वरोजगार के स्वसुलभ जिसे गरीब बच्चें भी फायदा उठा सकें । आज के दौर शिक्षा सिर्फ अंग्रेजी, प्राश्चात संस्कृति की धाप बनकर रह गई है । जो हमारी रुचि के अनुसार हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में सहायक होकर हमें श्रेष्ठ नागरिक बनाने में हमारी मदद करें । अनैतकतापूर्ण स्कुलों व कालेज परिसरों में आये दिन हिन्सात्मक वारदाते होना हमारी आधुनिकत्म शिक्षा नीति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है हमारी नीतिज्ञयता में कमी इसी का परिणाम है हमारे आदर्श क्या है गुरु का सम्मान क्या होता है माँता-पिता की आदर करना इत्यादि का ज्ञान हमारे व्यवहार से बाहर हो जाने से हम आसपास के माहौल से प्रेरित बाहरी शिक्षा नीति की बाहरी संस्कृति व नीति को अपनाकर अपने ही भविष्य के साथ खिडवाल कर रहे है बल्कि समाज व राष्ट्र का भी अहित कर रहे है । संस्कृति का ज्ञान न होना हमारी शिक्षा नीति में नीतिज्ञ ज्ञान का अभाव भावी पीढ़ी ही नही भविष्य में सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए अहितकर होगा । अतः जरुरत है हमें आधुनिक शिक्षा में बदलाव की । लाखों रुपयों की योजनाएं चलाने के बजाए शिक्षा का सरलीकरण व प्राथमिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसाईक पाठ्यक्रम भी सिखाये जाए ताकि वे बच्चे जो इस समय (आज के दौर में ) हमारे देश में सबसे ज्यादा है जरा सी पूजी के साथ व्यसाय कर अपने परिवार का भरण-पोषण के साथ साथ अपनी स्कुली प्राथमिक शिक्षा की तालिम भी लेते रहे स्कुलों में भोजन व्यवस्था व मुक्त की किताबे, स्कुल ड्रेस, स्कालशिप से गरीब बच्चे स्कुल की ओर आकृर्षित जरुर हुए है, लेकिन वे गरीब बच्चे जो माँ-बाप के साथ स्वयं भी परिवार की आय स्त्रोत के लिए मजदुरी करने पर बाध्य है उनके लिए ऐसी योजनाएँ किस काम की अतः हमारी सरकार को इस तरह के बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए प्राथिमक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिकता सम्बन्धी पाठ्यक्रम दि.ये जाए ताकि वे पढ़ाई के साथ साथ बालमजुदरी के लिए बाध्य न रहें। गाँधी जी ने कहाँ था कि - पाठशाला चरित्र निर्माण, शिक्षा रोजगार का साधन स्थली होना चाहिए वह शिक्षा जो मनुष्य को कम्प्युटर की भांति ज्ञैन-सामग्री का विश्वकोश, रोबोट के समान मानवशुन्य पशुता की श्रेणी में न ला खण्डा करें मानवी जीवन का महत्व है उसके विचारों आदशों से । अतः गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा नीति का स्वप्न आज भी कितना प्रासंगित है अमल योग्य कितना आवश्यक है अनैतिकता की बेडियाँ तोडने के लिए हमें उनके आदर्शो को पूर्नः अपनाना होगा ।
अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा आजकल अत्यंत परेशान चल रहे हैं। उनकी परेशानी का कारण भी अजीबो गरीब है। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा लगभग हर फ्रंट पर असफल रहे हैं तथा पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश की तुलना में उनका रिपोर्ट कार्ड अभी तक शून्य चल रहा है परंतु इस असफलता पर बराक ओबामा ज्यादा परेशान नहीं हैं। उनकी परेशानी का कारण यह है कि अमेरिका में रहने वाले भारतीय शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में असाधारण रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रहे हैं तथा उनके मुकाबले अमेरिका के छात्र कहीं भी नहीं टिक पा रहे हैं। बराक ओबामा एक स्कूल के कार्यक्रम में भाग ले रहे थे। यह स्कूल अमेरिका का नामी गिरामी स्कूल है तथा इसमें वहां के धनी एवं उच्च घरानों के बच्चे पढ़ते हैं। बच्चों के एक क्विज कार्यक्रम में भारतीय मूल के बच्चों ने अमेरिका के बच्चों को बुरी तरह से हरा दिया। गणित एवं साइंस के प्रश्नों को भारतीय छात्रों ने मौखिक ही हल कर दिया जबकि अमेरिका के स्थानीय छात्रा कम्प्यूटर एवं कैलकुलेटर के आदी हो चुके हैं। कविता प्रतियोगिता में भी भारतीय छात्रों के मुकाबले अमेरिका के छात्रा शून्य ही रहे। इसी तरह धर्म एवं संस्कारों से संबंधित क्विज में भी भारतीय छात्रा हावी रहे। कार्यक्रम के अन्त में जब पुरस्कार वितरण के लिए जब बच्चों को मंच पर बुलाया गया तो उसमें लगभग नब्बे प्रतिशत भारतीय छात्रों की हिस्सेदारी थी। इस सारे प्रदर्शन से राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अत्यंत अपमानित एवं उपेक्षित महसूस किया तथा अपने भाषण में ओबामा ने अमेरिका के छात्रों को भारतीय छात्रों से पढ़ने की कला सीखने की सलाह दी तथा स्कूल प्रबंधन को हिदायत दी कि भारतीय पैटर्न पर पढ़ने तथा पढ़ाने की व्यवस्था की जाये तथा इसमें भारतीय शिक्षकों का ज्यादा से ज्यादा सहयोग लिया जाये।
अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय छात्रा हर क्षेत्रा में अमेरिका के स्थानीय छात्रों से इतने आगे क्यों हैं। इसका सबसे सीधा एवं सरल उत्तर भारत की प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली है। इस गुरूकुल शिक्षा प्रणाली में में गुरू छात्रों को गणित एवं विज्ञान के सभी प्रश्न, बारीकियों, जटिलताओं को मौखिक ही हल करवाते थे अथवा रटवाते थे। उसी गुरूकुल शिक्षा के कुछ अंश आज भी भारतीय शिक्षा में जीवित हैं तथा उसके बल पर भारतीय छात्रा गणित एवं विज्ञान का मौखिक हल इतना आसानी से कर लेते हैं। इसी तरह भारतीय छात्रों को कविता रटने की जन्म से ही आदत होती है तथा बचपन से ही भजन, जागरण, आरती आदि रटते रहते हैं तथा गाते हैं। यह हमारे हिंदू परिवारों की एक परंपरा होती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती है। हमारे देश में हर व्यक्ति जन्म से ही कवि होता है इस कारण बच्चों को कविता रटने एवं गाने में कोई झिझक नहीं होती। इसी तरह संस्कार संबंधी मामलों में भारतीय छात्र परिवारों में स्वतः ही अच्छे संस्कार सीख जाते हैं। संयुक्त परिवारों में बच्चों में धर्म, संस्कृति, मानवता, व्यवहार, आदि की शिक्षा बिना किसी विशेष ध्यान के स्वतः ही आ जाती है। अतः इस क्षेत्रा में भी अमेरिका के छात्रा भारतीय छात्रा विशेषकर हिंदू छात्रों के सामने कहीं भी टिक नहीं पाते। इस सारे वर्णन से स्पष्ट है कि हमारा देश धर्म, संस्कृति, मानवता, व्यवहार तर्क आदि के मामलों में विदेशी छात्रों से काफी आगे है। इसी के साथ-साथ भारत की प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली आज भी श्रेष्ठतम शिक्षा प्रणाली है। भारत की संयुक्त परिवार व्यवस्था एवं गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के कुछ बचे हुए अंशों ने आज भी भारतीय छात्रों का विदेशों में भी लोहा मनवा दिया है।
ओबामा के संदेश एवं हताशा से भारत सरकार एवं नेतागणों को संदेश एवं सबक लेना चाहिए। आज हमारे देश में शिक्षा को लेकर थ्री इडियट्स की तरह रोज नये-नये तरह के ड्रामा एवं स्टंट करते रहते हैं। इन सारे स्टंट एवं ड्रामों से आज भारत की शिक्षा व्यवस्था इस तरह की हो गयी है जैसे वह किन्हीं इडियट्स के द्वारा संचालित हो रही है तथा सिर्फ इडियट्स के लिए ही होकर रह गयी है। भारत के राजनेता, शिक्षाविदों आदि को इस सारे प्रकरण से कुछ सीखना चाहिए। जहां एक ओर विज्ञान एवं आधुनिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है वहीं भारत की गुरूकुल शिक्षा प्रणाली संस्कृत शिक्षा, धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक एवं अनिवार्य है। भारत में आजकल एक नई बीमारी घर कर गई है। यहां के कर्णधार भारत की हर विरासत को बदनाम करने एवं गाली देने में अपने आप को गौरवान्वित समझते हैं तथा आंखें बंद करके पश्चिम एवं इस्लामिक शिक्षा एवं सभ्यता का अनुसरण करने में गर्व महसूस करते हैं। इसी का परिणाम है कि आज भारत की शिक्षा प्रणाली में जबरदस्त भटकाव आ गया है तथा इसी भटकी हुई शिक्षा प्रणाली के परिणाम स्वरूप आज भारत के छात्रों में भी भारी भटकाव आ गया है। इसके परिणाम स्वरूप हमारी शिक्षा प्रणाली एक दम दिशाहीन हो गयी है तथा भारतीय छात्रा भी एकदम दिशाहीन हो गये हैं तथा चारों तरफ एक भटकाव का सा माहौल बन गया हैं। इस सारे वर्णन में एक साफ संदेश देखा जा सकता हैं, पहला यह है कि विज्ञान एवं आधुनिक शिक्षा के नाम पर पश्चिम एवं धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली से भारत के छात्रा एवं शिक्षा जगत में दिशाहीनता साफ देखी जा सकती है। इसी तरह देश की प्राचीन गुरूकुल एवं संस्कृत शिक्षा प्रणाली को भी छोड़ कर भारत के शिक्षा जगत में भी अंधकार एवं दिशाहीनता स्पष्ट दिखाई देती है।
शिक्षा और युवावर्ग के पारस्परिक संबंध को रोजगार एक सामाजिक आधार प्रदान करता है। इसलिए रोजागर की अधिकाधिक संभावनाओं वाली शिक्षा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में शैक्षणिक गुणवत्ता और नैतिक मूल्यों के स्थान पर काबिज हुई है। इसका इतिहास लगभग दो सौ वर्ष पुराना है यानी इसके सूत्र औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों की देख-रेख में हो रहे शैक्षणिक ढांचे में हुए बदलाव तक फैले हैं। अपनी समस्त शैक्षणिक तैयारियों, जिसमें ज्ञान, मेधा, डिग्री, प्रमाण-पत्र और अनुभव शामिल हैं, के साथ युवा जब सामाजिक ढांचे में प्रत्यक्ष भूमिका के लिए तैयार होता है तो जो तत्व उसे वैध-अवैध, जरूरी-गैरजरूरी करार देता है, वह है, उसका रोजगार या उसकी संभावना। औपनिवेशिक दौर की आधुनिक शिक्षा से पूर्व तक शिक्षा एक वर्ग-विशेष तक सीमित थी और उसका उद्देश्य भी अपने पारंपरिक क्षेत्रों में दक्षता प्रदान करना था। औपनिवेशिक दौर की आधुनिक शिक्षा ने उसे चोट जरूर पहुंचाई लेकिन उसे पूरी तरह ध्वस्त नहीं किया, जो उसका उद्देश्य था भी नहीं। उसका मूल उद्देश्य औपनिवेशिक ढांचे को सुचारू रूप से चलाने के लिए सस्ते मानव-उपकरण तैयार करना था इसलिए सामाजिक जागरूकता या नैतिक दायित्व जैसे प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया। साथ ही शिक्षा के जरिये विशेषीकृत लोगों की एक ऐसी जमात तैयार की गई जो कुशल श्रम, सेवा क्षेत्र या उससे जुड़ने की संभावना के आधार पर सामान्य लोगों से अलग हो गई। औपनिवेशिक दौर में रोजगार की जो नई संभावनाएं पैदा हुई थी, शिक्षण नीति को बदल कर उसके हित-पोषण में लगाया गया। इसलिए शिक्षा और रोजगार में मजबूत और अनिवार्य संबंध स्थापित हो गया, जो आज और भी अधिक दृढ़ और स्थायी हो चुका है।
भारत जैसे देश में रोजगार को शिक्षा का अतिरिक्त उत्पाद होना चाहिए था, लेकिन प्रबोधन शिक्षा का अतिरिक्त उत्पाद हो गया और जैसे-जैसे प्रबोधन की स्मृति धूमिल होती गई, शिक्षा के आधारभूत ढांचे से ज्ञान और प्रबोधन का तत्व भी धुंधला होता गया। उसकी जगह अधिक स्वार्थ लोलुपता, चालाकी, अंधी प्रतियोगिता और आर्थिक सफलता की इच्छा ने ले ली। पिछले किसी भी दौर से तुलना करें तो पायेंगे कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने वर्ग-विभाजन को पहले के बनिस्पत अधिक गहरा किया है। साथ ही, वर्ग-विभाजन के उपरान्त पैदा होने वाले असंतोषों के शमन के लिए रोजगार की संभावनाओं का इस्तेमाल ‘सेफ्टी वाल्व’ की तरह किया है। उसी तरह जैसे पहले सामाजिक असंतोषों के शमन के लिए धर्म और ईश्वर को ‘सेफ्टी वाल्व’ के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। इसलिए केवल स्कूल और कालेज यानी शैक्षणिक संस्थान ही बटें नहीं हैं बल्कि शिक्षा का भी खौफनाक बंटवारा हुआ है। एक ओर यदि विज्ञान- प्रौद्योगिकी और प्रबंधन आधारित व्यावसायिक शिक्षा है जिसे भूमंडलीय-बाजारवादी व्यवस्था ने अनंत संभावनाओं से भर दिया है तो दूसरी ओर पारंपरिक मानविकी शिक्षा है।
आजादी के बाद शिक्षा को राज्य के अधीन इस उद्देश्य के साथ किया गया कि इसमें क्षेत्रीय विशिष्टताओं और मांग के अनुरूप ठोस एवं व्यावहारिक नीतियां बनाई जा सके। इसलिए ‘शिक्षा की भारतीय प्रणाली’ अपने पारिभाषिक रूप में कोई केन्द्रीयकृत इकाई नहीं है। बावजूद इसके रोजगार की संभावना और सुरक्षा इसे केन्द्रीय रूप प्रदान करती है। बच्चा जब स्कूल में भर्ती होता है तो वहां से लेकर उच्च शिक्षा तक, जितने भी लोग इस दौड़ में बचे रहते हैं, खौफनाक रूप से वर्गीकृत हैं। संकाय, भाषा, संस्थान, पैसा, शहर और देश इसके वर्गीकरण को आधार प्रदान करते हैं। इन तमाम आधारों को वैधता प्रदान करने का काम रोजगार करता है। इसके कारण ‘शिक्षित युवा’ कहने से बहुत खींचतान कर भी कोई समान या एकरूप परिभाषा नहीं बनाई जा सकती। गांवों-कस्बों में खुलने वाले कालेज और शहरों में स्थापित कालेजों में ढांचागत अंतर बहुत अधिक है जो समान डिग्री के बावजूद गुणवत्ताा को आसानी से प्रभावित करता है। शिक्षा की माध्यम भाषा तो मौजूदा दौर में रोजगार की संभावना को सीधे-सीधे बांट देती है। औपनिवेशिक भारत की शिक्षण नीति और आजाद भारत में उसके किंचित सुधरे रूप ने रोजगार को नौकरी तक सीमित कर दिया है। शिक्षण व्यवस्था के द्वारा उत्पादित विद्यार्थी कुशल मजदूरी-पर्यवेक्षक या अर्थ-व्यवस्था के तीसरे क्षेत्र अर्थात् सेवा क्षेत्र के लिए तैयार माल की तरह शैक्षणिक संस्थाओं से निकलते हैं। उक्त क्षेत्र यदि इस तैयार माल का उपयोग नहीं कर पाते तो रोजगार या जीविकोपार्जन के लिए वे जो भी रास्ता चुनते हैं उसमें अर्जित शिक्षा की भूमिका नगण्य होती है। यदि व्यापक तौर पर एक सर्वेक्षण किया जाए कि नौकरी न मिलने के बाद युवाओं द्वारा चुनी गई आजीविका में उनकी शिक्षा मददगार हुई या नहीं तो इसके नतीजे भयंकर रूप से निराशाजनक होंगे। इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत में युवाओं की संख्या और नौकरी की उपलब्धता को देखते हुए शिक्षा ने न तो रोजगार के प्रति कोई विश्वास पैदा किया है और न ही वह नैतिक-सामाजिक- राजनीतिक मूल्यों के विकास की दिशा में कोई सकारात्मक पहल कर पायी है। इसकी जगह उसने गलाकाट प्रतियोगिता की दिशा में आक्रामक बन जाने के लिए युवाओं को उकसाया है।
प्रबंधन और प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा ने युवाओं की रोजगार संभावनाओं को पुष्ट जरूर किया है, लेकिन इसका एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि इसने शिक्षितों के नाम पर चालाक और धूर्त लोगों की जमात खड़ी की, जिसका सीधा संबंध भूमंडलीकृत व्यवस्था से है। भूमंडलीय बाजार के एकाधिकार के पूर्व के दौर में जब लघु दस्तकारी और छोटे उद्योगों के संरक्षण की सरकारी नीतियां प्रभावी थीं, तब सीमित मात्रा में ही सही, ऐसी शिक्षा जो रोजगार से सीधे जुड़ी थीं जैसे आई.टी.आई. या व्यावसायिक डिप्लोमा पाठयक्रम, उसके प्रति मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्गीय छात्रों का झुकाव था और इसमें एक सम्मान जनक जीवन जीने की पर्याप्त संभावनाएं थीं, लेकिन बाजार ने रोजगार के इस क्षेत्र को असंगठित क्षेत्रों के हवाले कर दिया जिसका श्रममूल्य अत्यधिक नीचा है। इसका सीधा फायदा एकीकृत बाजारवाद तथा उदारीकरण के समर्थकों को मिला। आजाद भारत में शिक्षा में बुनियादी सुधार संबंधी जितने भी प्रस्ताव और रिपोर्ट प्रस्तुत किये गये, उनमें शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाने की बात कही गई और कई तरह के व्यावसायिक पाठयक्रमों की अनुशंसा भी की गई। पाठयक्रम लागू भी किये गए जिसके प्रति लोगों का रवैया उत्साहपूर्ण है। इसका सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा कि जो पाठयक्रम शिक्षा को रोजगार से जोड़ने में अपेक्षाकृत न्यून संभावनाओं वाले हैं, उसके प्रति उदासीनता बढ़ी या उसे टाइम पास जैसी मानसिकता के साथ ग्रहण किया गया। इस तरह पाठयक्रम ने रोजगार की संभावनाओं के आधार पर शिक्षित युवाओं को भयंकर रूप में वर्गीकृत कर दिया है। कला और समाज-विज्ञान जैसे संकायों के प्रति युवाओं की उदासीनता बढ़ी है। इसे इन संकायों से शिक्षा अर्जित कर रहे छात्रों की संख्या के आधार पर नहीं बल्कि रुचियों और आकर्षण के आधार पर देखना चाहिए। इसे राजधानी या महानगरों में स्थित संस्थानों- विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की रुचियों के आधार पर भी देखना चाहिए। यदि रोजगार की संभावनाओं को केन्द्र में रखकर विद्यार्थियों की संख्या का एक रेखाचित्र बनाया जाए तो वह पिरामिड की तरह का होगा जिसके ऊपरी भाग में प्रबंधन, प्रौद्योगिकी या पब्लिक सर्विस में जाने की तैयारी के लिए श्रेष्ठ संस्थानों में पढ़ रहे युवा होंगे तो नीचे क्रमश: विज्ञान, वाणिज्य और कला के सामान्य विद्यार्थी होंगे। इस तरह शीर्ष पर काबिज युवा, शेष समुदाय से स्वयं को अलग कर लेते हैं। चिन्ता की बात यह है कि शीर्ष के युवा जब रोजगार प्राप्ति की दृष्टि से असफल हो जाते हैं तो समाज में उनके लिए जगह नहीं होती। वे अकेलेपन, आत्म-निर्वासन और अजनबीयत के शिकार हो जाते हैं। इस संदर्भ में अमरकांत की कहानी ‘डिप्टी कलेक्टर’ उल्लेखनीय है।
भारत का शिक्षित शारीरिक और मानसिक श्रम बाजार, शिक्षितों के एक छोटे से अंश को अपने भीतर जगह देता है। इसलिए रोजगार उनके भीतर एक असुरक्षा पैदा करती है। आजाद भारत में कोई ऐसा ढांचा आज तक विकसित नहीं किया जा सका है जो शिक्षा से लैस युवाओं को रोजगार की गारंटी प्रदान कर सके या ऐसी स्थिति के न होने पर क्षतिपूर्ति स्वरूप उनके जीवन को चलाने की कोई सुचारू व्यवस्था कर सके। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि शिक्षा का आर्थिक मूल्य तो किसी हद तक विकसित हुआ लेकिन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य लगातार धूमिल होते गए। भूमंडलीकृत व्यवस्था में रोजगार की नई संभावनाओं ने राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को और भी अधिक समस्याग्रस्त बना दिया है। विशेषकर महानगरों के नव धनाढयों और संपन्नों ने शिक्षा को पूरी तरह बाजार में जीने और अपनी बोली लगाने की दक्षता में बदल दिया है। भारत जैसे देश में जहां 83 करोड़ से भी अधिक जनता रोजाना बीस या उससे कम रुपये में अपनी जिन्दगी गुजार रही है वहां 5-10-20 लाख के वार्षिक पैकेज को हड़पने वाली शिक्षा के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं इसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। विगत दस वर्षों में नगरों-महानगरों में हत्या, डकैती, अपहरण जैसी घटनाओं में लिप्त लोगों का अधिसंख्यक वर्ग यही शिक्षित युवा ही है जो या तो ऐश के लिए या असुरक्षा के चलते इन अपराधों की ओर आकर्षित हुआ। दंगों में सक्रिय भूमिका निभाने वाला वर्ग यही है। कहना होगा कि शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त असंतोषों के विस्फोटक रूप लेने की शुरूआत हो चुकी है। प्रख्यात शिक्षाशास्त्री मूनिस रजा ने पहले ही इस ओर ध्यान आकर्षित कराया था- ”भारतीय उच्च शिक्षा का संकट न तो इसके आकार में निहित है और न ही प्रसार की ऊंची दर में। भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र का वास्तव में और अधिक प्रसार आवश्यक है ताकि वह वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक आत्म-निर्भरता के आधार पर सामाजिक-आर्थिक रूपांतरण की आवश्यकताएं पूरी कर सके। भारतीय उच्च शिक्षा के संकट की जड़ें उन संरचनात्मक विकृतियों और अपर्याप्तताओं में है जो विरासत में मिली प्रणाली की जकड़ को तोड़ सकने की असमर्थता की देन है।”
एक सामान्य-सा प्रश्न जो हमारी शिक्षा पध्दति से बहिष्कृत कर दिया गया और जिसे कभी ठीक से हमारी शिक्षा पध्दति का हिस्सा ही नहीं बनाया गया कि क्या समाज की कोई प्रत्यक्ष सेवा व्यापक रूप में कभी शिक्षा का उद्देश्य बन पायेगी? इसका नकारात्मक उत्तार ही शिक्षा को केवल कमाई के जरिये के रूप में देखता है। शिक्षा एक सांस्कृतिक कर्म है जिसका उद्देश्य विषमताओं और असंतोषों का शमन करना होना चाहिए, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि रोजगार की हड़प नीति ने उसे लगातार धूर्त बनाया है। युवाओं के बीच धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, पारिस्थितिकी, बहुलता, वर्ग जैसे मुद्दों पर एक ईमानदार बहस चलाने में हमारी शिक्षण पध्दति व्यावहारिक स्तर पर नाकाम रही है। यदि वह बहस कहीं उठी थी तो युवाओं की व्यक्तिगत निष्ठा के बल पर, न कि पाठयक्रम की एक जरूरी शर्त के रूप में। इस तरह आजाद भारत में शिक्षा व्यापक रूप में शिक्षा बन ही न पाई, वह रोजगार के आस-पास ही चक्कर काटती रही। इस संदर्भ में शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार का वक्तव्य उल्लेखनीय है- ”ऐसी साक्षरता जो शब्दों के अलावा परिस्थिति का बोध कराती है, शिक्षा बन जाती है। इसके विपरीत जब शिक्षा जीवन और समाज की परिस्थिति से कट जाती है तब वह साक्षरता बन कर रह जाती है।” इसलिए हमारे समय के जागरूक युवाओं को अब साक्षरता को शिक्षा बनाने की दिशा में कुछ निश्चयात्मक कदम उठाने होंगे और एक ऐसा सामाजिक दबाव पैदा करना होगा जिससे शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को पाने की दिशा में नीतियां बननी शुरू हो । हमारे देश में जहां एक ओर विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा की सख्त आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली एवं संस्कृत शिक्षा की भी सख्त आवश्यकता है। भारत की परिस्थितियों में दोनों में सांमजस्य की सख्त आवश्यकता है। इससे ही भारत का तिरंगा सारे विश्व में बुलंद रहेगा।

Wednesday, February 23, 2011

डॉ. राम लखन मीना: नई कविता का अतियथार्थवादी धरातल : डॉ. राम लखन मीना...

डॉ. राम लखन मीना: नई कविता का अतियथार्थवादी धरातल : डॉ. राम लखन मीना...: "यह सही है कि हर काव्यांदोलन अपने पूर्ववर्ती काव्य संस्कार से संघर्ष करते हुए जन्म लेता है, यानी वह अपने आप जन्म लेने वाले नहीं है। हिंदी कवि..."

Tuesday, February 22, 2011

नई कविता का अतियथार्थवादी धरातल : डॉ. राम लखन मीना, हिंदी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.

यह सही है कि हर काव्यांदोलन अपने पूर्ववर्ती काव्य संस्कार से संघर्ष करते हुए जन्म लेता है, यानी वह अपने आप जन्म लेने वाले नहीं है। हिंदी कविता का इतिहास इसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है। छायावाद द्विवेदी युगीन काव्य संस्कार से, प्रगतिवाद छायावाद से तथा प्रयोगवाद प्रगतिवाद से अपनी पृथकता अवश्य रखने वाले हैं। नई कविता प्रयोगवादी मानसिकता के बहुत सारे तत्त्वों को स्वीकारते हुए आगे बढने वाली काव्यधारा है। पर नई कविता की पूर्व पीठिका के रूप में प्रयोगवाद का स्थान निर्विवाद है। १९४३ में ’तारसप्तक‘ का प्रकाशन हिन्दी काव्य संवेदना को पूर्णतः बदलने वाली साहित्यिक घटना के रूप में हमारे सामने है। लेकिन इसके पहले ही हिंदी कविता में प्रयोग के नए अंकुर फूटने लगे थे। अज्ञेय द्वारा संपादित ’तारसप्तक‘ के प्रकाशन के चार-पाँच वर्ष पूर्व ’तारसप्तक‘ के कवियों के अतिरिक्त केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे अनेक समर्थ कवि नए ढंग से काव्य रचना में तल्लीन रहे थे। पर उसके भी पहले निराला, पंत आदि की कुछ रचनाओं में परिवर्तन की सूचनायें मिल जाती थीं। डॉ. गिरिजाकुमार माथुर ने यह बात कही थी कि ’तारसप्तक‘ के प्रकाशन से पाँच वर्ष पूर्व ऐसी रचनाएँ हो रही थीं, सन् १९४० के आसपास के कृतित्व से वह आधुनिक स्वर सबल और स्पष्ट होकर सामने आ गया था। निराला की ’अनामिका‘, ’कुकुरमुत्ता‘ जैसी रचनाओं से और ’रूपाभ‘, ’उच्छृंखल‘, ’हंस‘ जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन से यह व्यक्त हो जाता है कि हिंदी में ’तारसप्तक‘ के पहले ही परिवर्तन की लहरें जोर पकडने लग चुकी थीं। १९४३ में ’तारसप्तक‘ का प्रकाशन इस बदली हुई मानसिकता की चरम परिणति है। नई कविता के विकास क्रम में सप्तक काव्य परम्परा की सशक्त भूमिका रही है जिनकी पहली सीढी अज्ञेय द्वारा संपादित ’तारसप्तक‘ ही है। यद्यपि सप्तकों के बाहर भी प्रतिष्ठित कवियों की रचनाएँ सर्वमान्य रही हैं तथापि ’तारसप्तक‘ से लेकर ’तीसरा सप्तक‘ तक का समय आधुनिक हिंदी कविता का सबसे अधिक गतिशील समय रहा है। प्रयोग अर्थात् काव्य-सत्य की खोज हिंदी कविता के इतिहास में ’तारसप्तक‘ के कवियों के सम्मिलित प्रयास ने परम्परागत काव्य-चिंतन पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। इसलिए अज्ञेय ने कहा है कि ’प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं।‘ स्पष्ट है कि इन कवियों का लक्ष्य काव्य-जगत् के अछूते संदर्भों का अनावरण करके अभिव्यक्ति का आयाम-विस्तार करना ही था। अतः यह सुविदित है कि आधुनिक हिंदी कविता को नया सौंदर्यबोध और नई अर्थवत्ता प्रदान करने में प्रयोगवाद की भूमिका अवश्य रही है। ’नई कविता के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस‘ शीर्षक साही का लम्बा लेल यहाँ विशेष उल्लेखनीय है। जहाँ तक काव्य सत्य की खोज का संबंध है, प्रयोगवादी कविता का कथ्य कवि की आत्मा से जुडा हुआ है, लेकिन समाज में कवि अपने वर्तमान से बिल्कुल असंतुष्ट है। सब कहीं पराजय ही पराजय नजर आती है। आशा की किरणें कहीं भी दिखाई नहीं देतीं। ऐसे संदर्भ में प्रयोगवादी कवि जीवन के कृष्ण पक्ष को ही सत्य मानकर उसकी विस्तृत अभिव्यक्ति के लिए तैयार हो उठता है। जहाँ भी प्रयोगवादी कविता सार्थक हो उठती है और समय के साथ जुड भी जाती है। प्रयोगवादी कवि अपनी कविता के माध्यम से आधुनिक मानव के वास्तविक जीवन-सत्य की तलाश कर रहे हैं ताकि कविता प्रयोगवादी बन गयी तथा उसने कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर नई-नई संभावनाओं को तलाशने के लिए उसके खुरदुरे रास्ते को अपना लिया। अतः प्रयोगवादियों के काव्य सत्य की तलाश दरअसल नए मानव की वास्तविकता की तलाश है या यों कहिए कि वह उसकी अस्मिता की तलाश है।
विद्रोह की अनिवार्यता यहाँ काव्य-सत्य को व्यापक बनाने हेतु नूतन प्रयोगों पर बल दिया। अतः प्रत्येक संवेदनशील एवं सृजनात्मक प्रतिभा के लिए प्रयोग की प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य बन गया। निराला में जिस विद्रोह का स्वरूप मिलता है और वह प्रयोगवादी कवियों में प्रयोग बन गया है। विद्रोह की अनिवार्यता का धक्का सबसे पहले काव्यगत ’एप्रोच‘ पर लगा जो अकाल्पनिक ’एप्रोच‘ कह सकते हैं। इस प्रकार नए प्रयोग और प्रतिक्रिया के बाहुल्य के साथ पूर्ववर्ती छायावादी तथा उत्तर छायावादी कविताओं से भिन्न जो कविता फूट पडी उसे आलोचकों ने प्रयोगवाद का नाम दिया। उसके मूल में विद्रोह की मानसिकता मौजूद है। वह नई दिशा की तथा नए संदर्भों की खोज करने वाली कविता है, उसमें पूर्ववर्ती काव्य संस्कार के प्रति निषेध या विद्रोह है जो इसका अनिवार्य अंग बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप हिन्दी कविता का पूरा वातावरण ही बदल गया। बौद्धिक रुझान की प्रयोगवादी भूमिका प्रयोगवादी कविता ने हृदय के स्थान पर बुद्धि को अपनाया है। सामयिक जीवन के सभी पहलुओं पर इसकी दृष्टि बौद्धिक रही। मेरे ख्याल से बौद्धिकता अपने आप एक विशेष प्रकार की प्रयोगशीलता है, क्योंकि ’एमफसिस‘ बदलने के साथ-साथ कल्पना का तथा अनुभूति का वृत्त व्यक्त हुआ और इसकी आधारशिला बौद्धिक वृत्ति है। मतलब भावुकता के स्थान पर बौद्धिक चिंतन प्रबल बन गया। तो स्पष्ट है कि बुद्धि ने प्रयोगवादी कविता में आकर हृदय का स्थान ग्रहण किया; वह बौद्धिकता की छाया में विकास पाने लगी। कथ्य और शिल्प सबंधी सभी प्रवृत्तियों के पीछे एक प्रेरणा की भाँति यह बुद्धितत्व वर्तमान है। बुद्धि और हृदय का बौद्धिक संयोग इसलिए एक मुख्य तत्त्व बन जाता है। कठोर यथार्थ का धरातल उपर्युक्त बौद्धिक मानसिकता के कारण प्रयोगवादियों में यथार्थ-ग्राहिता शक्ति बढती गई। भावावेश के स्थान पर वस्तुवादी दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह इनमें हैं। उसका यथार्थ अपनी समकालीन जटिलता को जाहिर करने का यथार्थ है यानी एक प्रकार की प्रगतिशील मानसिकता है। यह समय के साथ संदर्भित होने का रवैया है और यही इसकी वह आधारशिला है जो नई कविता में आकर विस्तार पा गई थी। प्रयोगवाद के रूप में नई कविता का जो बीज यहाँ बोया था उसका पल्लवन द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त होने लगा। देश का सामाजिक- राजनीतिक पहलू यहीं रचना का विषय बनने लगता है। उसमें यथार्थबोध का पुट अवश्य है और उसका सम्बन्ध जीवन की वास्तविकता से है। इस प्रकार नई आवश्यकताओं एवं यथार्थों के धरातल पर अपनी अलग मानसिकता तैयार करना आधुनिक रचना की विशिष्ट उपलब्धि बन गई है। इसलिए कविता का यथार्थ युगीन एवं सामयिक बन जाताहै।वैयक्तिक गहराई काव्य में अनुभूति की प्रामाणिकता के संदर्भ में व्यक्ति- चिंतन का प्रारम्भ होता है। वह समष्टिबोध को अनदेखा करके या सामाजिकता को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति नहीं। कविता के समस्त कलात्मक मूल्यों को बनाए रखने तथा परम्परागत- सैद्धान्तिक आग्रहों से मुक्त होने के लिए व्यष्टिपरक चिंतन की अनिवार्यता है। प्रयोगशील रचना में यह स्पष्ट होने लगा कि व्यक्ति के साथ-साथ समाज का भी अपना विशेष स्थान है। मुक्तिबोध, नेमीचन्द जैन आदि ने यह बात व्यक्त की है। जैसे, ’कविता समाज की सजीव इकाई के रूप में व्यक्ति को प्रधानता देती है, व्यक्ति के माध्यम से ही वह लोकमंगल तक पहुँचना चाहती है।‘ तो जाहिर होता है कि प्रयोगवादी कविता की व्यक्तिवादिता सामाजिकता से जुडी हुई है। वह दोनों का संतुलित रूप है। अज्ञेय ने इस बात को -’यह दीप अकेला, स्नेह भरा गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो‘ कहकर दुहराया है। अतः इस समय की कविता में वैयक्तिकता की जो तीव्रता है वह एक विशेष प्रकार की है जिसमें सामाजिकता की उपेक्षा बिल्कुल नहीं है। अतः नई कविता मेंजो वैयक्तिकता है उसकी शुरुआत प्रयोगवाद में ही हुई थी, इसमें कोई मतभेद नहीं।
आत्मवक्तव्य का मूल स्वर आत्मवक्तव्य से यही मतलब है कि नए व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की तलाश। इसका दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न आधुनिक भावबोध है। सामाजिक यथार्थ से सजग होने के साथ ही साथ युग-जीवन का अनास्थापूर्ण वातावरण इनकी कविताओं में मुखरित है। यह युग-सत्य शमशेर की कविताओं में देखने को मिलता है। इसका समर्थन डॉ. धर्मवीर भारती ने भी किया है। ’दूसरा सप्तक‘ में आते-आते यथार्थ जीवन की जो पकड पाने को मिलती है वह काव्य में सम्प्रेषित करना भी है। इसी से कविता में युग-चेतना जीवन्त होने लगती है। दूसरी बात बौद्धिकता का विकास है। बुद्धिवादिता ने उसे बाह्य संघर्ष के लिए प्रेरणा दी है। अलावा इसके ’दूसरा सप्तक‘ रोमांटिक परिधान की दृष्टि से भी अधिक मनोरम है। ’दूसरा सप्तक‘ के प्रकाशन के साथ ही उसके पक्ष और विपक्ष पर विद्वानों का दल खडा हो गया। सप्तक काव्य के कथ्य और शिल्प को लेकर वहाँ विभिन्न मत प्रकट किए गए हैं। इस चर्चा को अर्थवत्ता प्रदान करने में कुछ लघु पत्रिकाओं का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। उन पत्रिकाओं में प्रमुख है, ’नए पत्ते‘, ’नई कविता‘, ’प्रतीक‘, ’निकष‘, ’अर्चना‘ आदि। इनमें ’नई कविता‘ नामक पत्रिका के प्रकाशन ने हिंदी काव्य जगत् में नई कविता की प्रतिष्ठा को और तीव्र बना दिया। इसमें नई रचनाओं के साथ ही नई काव्य-प्रवृत्तियों का गंभीर विवेचन भी हुआ है। तो कहने का मतलब नए साहित्य या नवलेखन को प्रतिष्ठित करने में ’नई कविता‘ जैसी पत्रिका की भूमिका निर्विवाद रही है। इसका सम्पादन अज्ञेय और विजयदेव नारायण साही दोनों ने ही किया है। यों ’तीसरा सप्तक‘ के प्रकाशन के साथ नई कविता की सर्वस्वीकृति हो जाती है जो मूलतः एक परिस्थिति के भीतर पलते हुए मानव हृदय की ’पर्सनल सिचुएशन‘ की कविता है। नई कविता पूर्ववर्ती सप्तक कालीन कविताओं से आगे का विस्तार है जिसने समग्रता के साथ सामयिक जीवन को नई संवेदना के धरातल पर स्वीकारा है। यह व्यक्ति मन की प्रतिक्रिया होने के साथ-साथ आधुनिक जटिल जीवन का दस्तावेज है। नई कविता का स्वर वैविध्यपूर्ण है तथा उसका स्वरूप जीवन के नंगे यथार्थ से उभरा है। व्यक्ति और समाज के बीच कोई लकीर वह नहीं खींचती; कथ्य और शिल्प के सामंजस्य पर नई कविता जोर देती है। वह आधुनिक मानस की सहज परिणति है। वह जीवन को एक विशेष प्रकार से देखती है, उसकी दृष्टि ऋषिदृष्टि है। नई कविता इसलिए बहुआयामी है। इसकी चर्चा विसंगतिबोध, व्यवस्था का आतंक, अस्वतंत्रता, विद्रोह की अनिवार्यता, आधुनिक भावबोध, सम्प्रेषणीयता, मानवताबोध जैसे विभिन्न आयामों से ही पूर्ण हो जायेगी। अतः इसका धरातल अतियथार्थवादी कहना समीचीन है।
साहित्य की उपयोगिता सामाजिक संदर्भों में क्या हो; कैसी हो, पर हमेशा विमर्श होता रहा है। पूर्वी और पश्चिमी साहित्यिक चिन्तक इस पर अपनी अलग-अलग राय देते दिखाई देते हैं। इस बात पर जोर प्रमुखता से दिया जाता रहा है कि साहित्य किसी न किसी रूप में मानव हित में, समाज हित में कार्य करता है। चूँकि साहित्य की प्राचीन एवं लोकप्रिय विधा के रूप में ‘पद्य’ हमेशा से समाज में स्वीकार्य रहा है। पद्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन तक का कार्य कवियों ने कर दिखाया है। सामाजिक संदर्भों में देखें तो सीमा पर, रणक्षेत्र में लड़ते वीर जवानों को, खेतों में काम करते किसानों, मजदूरों को, सोई जनता, बेखबा सत्ता को झकझोरने को कवियों ने हमेशा कविता को हथियार बनाया है। देखा जाये तो श्रम और वाणी का सम्बन्ध सदा से ही घनिष्टता का रहा है। भले ही कई सारे श्रमिक कार्य करते समय निरर्थक शब्दों को उच्चारित करते हों पर उन सभी का मिला-जुला भाव ‘काव्य रूप’ सा होता है।
साहित्य सार्थक शब्दों की ललित कला है। अनेक विधाओं में मूल रूप में कहानी-कविता को समाज ने आसानी से स्वीकारा है। दोनों विधाओं में समाज की स्थिति को भली-भांति दर्शाने की क्षमता है। पूर्व में कविता जब भावों, छन्दों, पदों की सीमा में निबद्ध थी तब प्रत्येक व्यक्ति के लिए काव्य रूप में अपने मनोभावों को व्यक्त करना सम्भव नहीं हो पाता था। नयी कविता के पूर्व प्रगतिशील, प्रयोगवादी, समकालीन कविता आदि के नाम से रची-बसी कविता ने मनोभावों को स्वच्छन्दता की उड़ान दी। नायक-नायिकाओं की चेष्टाओं, कमनीय काया का कामुक चित्रण, राजा-बादशाहों का महिमामण्डन करती कविता से इतर नयी कविता ने समाज के कमजोर, दबे-कुचले वर्ग की मानसिकता, स्थिति को उभारा है।
साहित्य जगत में नयी कविता का प्रादुर्भाव एकाएक ही नहीं हुआ। रूमानी, भक्ति, ओज की कविताओं के मध्य देश की जनता सामाजिक समस्याओं से भी दोचार हो रही थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन का चरम, स्वतन्त्रता प्राप्ति, द्वितीय महायुद्ध, भारतीय परिवेश के स्थापित होने की प्रक्रिया, राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता की सरगरमियाँ आदि ऐसी घटनायें रहीं जिनसे कविता भी प्रभावित हुए बिना न रह सकी। नागार्जुन, केदार नाथ, नरेश मेहता, मुक्तिबोध, दुष्यन्त कुमार सहित अनेक कवि काव्य-रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्या को उठा रहे थे तो कविता का भी नया दौर ला रहे थे। इन कवियों ने समाज के प्रत्येक वर्ग की पीढ़ा को सामने रखा। नयी कविता पर अतुकान्त, छन्दहीनता का आरोप लगता रहा किन्तु वह अपनी आम जन की बोलचाल की भाषा को अपना कर पाठकों के मध्य लोकप्रियता प्राप्त करती रही।
स्वतन्त्रता के बाद की स्थिति की करुणता को आसानी से नयी कविता में देखा गया। किसान हों, श्रमिक हों या किसी भी वर्ग के लोग हों सभी को नयी कविता में आसानी से दिखाया गया है। इन सभी का एक मूर्त बिम्ब निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में आसानी से देखा जा सकता है। यद्यपि निराला को नयी कविता का कवि नहीं स्वीकार किया गया है उनकी बाद की काव्य-रचनाओं को किसी भी रूप में नयी कविता से अलग नहीं किया जा सकता है-
‘देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर/नहीं छायादार/पेड़ वह जिसके तले बैठी/वह स्वीकार/श्याम तन, भर बँधा यौवन,/नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन/गुरु हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार।’ -निराला, वह तोड़ती पत्थर
नयी कविता की प्रमुख बात यह रही कि इसमें कवियों ने दबे कुचले शोषित वर्ग को ही अपना आधार बनाया है। नारी रूप में उसकी कोमल देह, कंचन कपोल, ढलकती आँखें, काले केश ही नहीं दिखे बल्कि उसकी मनोदशा, उसकी स्थिति को भी दर्शाया है। वेश्या जीवन हो या किसी एक्सट्रा की स्थिति कवियों ने उसे भी स्वर दिया है-
‘सिन्दूर पर हजारों के नाम/होंठ पर अठन्नी की चमक/गर्भ में अज्ञात पिता का अंश/फेफड़ों में टी.वी. की गमक/- एक रुपया/- नहीं दो रुपया/कौन?/सीता?/सावित्री?’ -मृत्युंजय उपाध्याय, नयी कविता के माध्यम से समाज की समस्या को आसानी से उभारा गया है। वर्ग-संघर्ष को, पूँजीवादिता को, इन सबके द्वारा जनित समस्याओं और अन्तर्विरोधों को नयी कविता में दर्शाया गया है। इन विषमताओं के कारण आम आदमी किस कदर हताश, परेशान है इसे नयी कविता ने अपना विषय बनाया है-‘काठ के पैर/ठूँठ सा तन/गाँठ सा कठिन गोल चेहरा/लम्बी उदास, लकड़ी-डाल से हाथ क्षीण/वह हाथ फैल लम्बायमान/दूरस्थ हथेली पर अजीब/घोंसला/पेड़ में एक मानवी रूप/मानवी रूप में एक ठूँठ।’ - मुक्तिबोध, इस चैड़े ऊँचे टीले पर-नयी कविता ने मध्यमवर्गीय मनःस्थिति को उठाया है। गहरी निराशा, अवसाद और अपनी विसंगति को आक्रोशपूर्ण स्वर दिया है। मानव-मन के साथ-साथ वह देश की व्यवस्था को भी समग्र रूप से संदर्भित करती है-‘मेरा देश-/जहाँ बचपन भीख माँगते जवान होता है/और जवानी गुलामी करते-करते बुढ़िया हो जाती है/जहाँ अन्याय को ही नहीं/न्याय को भी अपनी स्थापना के लिए सिफारिशों की जरूरत होती है/और झूठ ही नहीं/सच भी रोटरी मशीनों और लाउडस्पीकरों का मुहताज है।’
सामाजिक संदर्भों में नयी कविता ने हमेशा विषमता, अवसाद, निराशा को ही नहीं उकेरा है। सामाजिक यथार्थ के इस सत्य पर कि कल को हमारी नासमझी हमारे स्वरूप को नष्ट कर देगी, कुछ समाज सुधार की बात भी कही है। प्रकृति की बात कही है, प्रेम की बात कही है, सबको साथ लेकर चलने की बात की है। नयी कविता ने देश-प्रेम, मानव प्रेम, प्रकृति प्रेम को विविध रूपों में उकेरा है-अनायता की आँखें/‘और जब मैं तुम्हें अपनी गोद में लिटाये हुए/तुम्हारे केशों में अपनी/अँगुलियाँ फिरा रहा होता हूँ/मेरे विचार हाथों में बंदूकें लिए/वियतनाम के बीहड़ जंगलों में घूम रहे होते हैं।’/‘झाड़ी के एक खिले फूल ने/नीली पंखुरियों के एक खिले फूल ने/आज मुझे काट लिया/ओठ से/और मैं अचेत रहा
धूप में!’ - केदार, फूल नहीं रंग बोलते हैं; कहना होगा कि नयी कविता ने समाज के बीच से निकल कर स्वयं को समाज के बीच स्थापित किया है। समाज में आसानी से प्रचलन में आने वाले हिन्दी, अंग्रेजी, देशज, उर्दू शब्दों को अपने में सहेज कर नयी कविता ने समाज की भाषा-बोली को जीवन दिया है। इसके लिए उसने नये-नये प्रतिमानों को भी गढ़ा है-
‘सीली हुई दियासलाई की तरह असहाय लोग’ - नरेश मेहता / ‘नीबू का नमकीन रूप शरबत शाम’ – शमशेर / कैमरे के लैंस सी आँखें बुझी हुईं’ - भारतभूषण अग्रवाल. इस तरह के एक दो नहीं वरन् अनेक उदाहरण ‘नयी कविता’ में दृष्टव्य हैं। इससे लगता है कि नयी कविता ने ‘लीक’ तोड़ कर समाज के प्रचलित अंगों को अपने साथ समेटा है। नयी कविता ने कविता की सीमाबन्दी को तोड़कर कुछ नया करने का ही प्रयास किया है। आम आदमी के दंश, मानसिक संवेदना को समाज में स्थापित करने से आभास हुआ है कि नयी कविता इसी समाज की कविता है। जहाँ यदि राजा की यशोगाथा गाई जाती है वहीं वेश्या की मानसिकता भी समझी जाती है; जहाँ किसी यौवन के अंगों पर कविता होती है तो मजदूरन भी उसी का हिस्सा बनती है; साहित्यिकता के मध्य देशज शब्दों को, बोलचाल की आम भाषा-शैली को भी स्थान प्राप्त होता है। इस दृष्टि से नयी कविता समाज से अलग न होकर समाज से जुड़ी प्रतीत होती है। यूँ तो प्रत्येक कालखण्ड में आती कविता को नया ही कहा जायेगा किन्तु सहज, सर्वमान्य नयी कविता के इस रूप ने जिन प्रतिमानों, उपमानों की स्थापना की है उन्होंने सही अर्था में समाज की सशक्त इकाई -मानव- और मानव-मूल्यों को महत्व दिया है। नयी कविता निःसन्देह सामाजिक संदर्भों में खरी प्रतीत होती है।
नई कविता के लिए जगत्-जीवन से संबंधित कोई भी स्थिति, संबंध, भाव या विचार कथ्य के रूप में त्याज्य नहीं है। जन्म से लेकर मरण तक आज के मानव-जीवन का जिन स्थितियों, परिस्थितियों, संबंधों, भावों, विचारों और कार्यों से साहचर्य होता है, उन्हें नई कविता ने अभिव्यक्त किया है। नए कवि ने किसी भी कथ्य को त्याज्य नहीं समझा है। कथ्य के प्रति नई कविता में स्वानुभूति का आग्रह है। नया कवि अपने कथ्य को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जिस रूप में उसे वह अनुभूत करता है। नई कविता वाद-मुक्ति की कविता है। इससे पहले के कवि भी प्रायः किसी न किसी वाद का सहारा अवश्य लेते थे। और यदि कवि वाद की परवाह न करें, किन्तु आलोचक तो उसकी रचना में काव्य से पहले वाद खोजता था-वाद से काव्य की परख होती थी। किन्तु नई कविता की स्थिति भिन्न है। नया कवि किसी भी सिद्धांत, मतवाद, संप्रदाय या दृष्टि के आग्रह की कट्टरता में फँसने को तैयार नहीं। संक्षेप में, नई कविता कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य और दृष्टि में सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और सृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। मनुष्यों में वैयक्तिक भिन्नता होती है, उसमें अच्छाईयाँ भी हैं और बुराईयाँ भी। नई कविता के कवि को मनुष्य इन सभी रूपों में प्यारा है। उसका उद्देश्य मनुष्य की समग्रता का चित्रण है। नई कविता जीवन के प्रति आस्था की रखती है। आज की क्षणवादी और लघुमानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टि है। नई कविता में जीवन का पूर्ण स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। जीवन की एक-एक अनुभूतियों को, व्यथा को, सुख को, सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करना क्षमों को सत्य मानना है। नई कविता ने जीवन को न तो एकांगी रूप में देखा।, न केवल महत् रूप में, उसने जीवन को जीवन के रूप में देखा। इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। जैसे- दुःख सबको माँजता है, और, चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना न जाने, किन्तु-जिसको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि, सबको मुक्त रखें। (अज्ञेय) नई कविता में दो तत्व प्रमुख हैं- अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि। वह अनुभूति क्षण की हो या एक समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो या निराशा की, अपनी सच्चाई में कविता के लिए और जीवन के लिए भी अमूल्य है। नई कविता में बुद्धिवाद नवीन यथार्थवादी दृष्टि के रूप में भी है और नवीन जीवन-चेतना की पहचान के रूप में भी। यही कारण है कि तटश्थ प्रयोगशीलता नई कविता के कथ्य और शैली-दोनों की विशेषता है। नया कवि अपने कथ्य के प्रति तटस्थ वृत्ति रखता है, क्योंकि उसका प्रयत्न वादों से मुक्त रहने का रहता है। इस विशेषता के कारण नई कविता में कथ्यों की कोई एक परिधि नहीं है। इसमें तो कथ्य से कथ्य की नई परतें उघड़ती आती हैं। कभी-कभी वह अपने ही कथनों का खण्डन भी कर देता है- ईमानदारी के कारण। नया कवि डूबकर भोगता है, किन्तु भोगते हुए डूब नहीं जाता। नई कविता जीवन के एक-एक क्षण को सत्य मानती है और उस सत्य को पूरी हार्दिकता और पूरी चेतना से भोगने का समर्थन करती है। अनुभूति की सच्चाई, जितना वह ले पाता है, उतना ही उसके काव्य के लिए सत्य है। नई कविता अनुभूतिपूर्ण गहरे क्षणों, प्रसंगों, व्यापार या किसी भी सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ पकड़ लेना चाहती है। इस प्रकार जीवन के सामान्य से सामान्य दीखनेवाले व्यापार या प्रसंग नई कविता में नया अर्थ पा जाते हैं। नई कविता में क्षणों की अनुभूतियों को लेकर बहुत-सी मर्मस्पर्शी कविताएँ लिखी गई हैं। जो आकार में छोटी होती हैं किन्तु प्रभाव में अत्यंत तीव्र। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। इन कवियों ने परंपरावादी जड़ता का विरोध किया है। प्रगतिशील कवियों ने परंपरा की जड़ता का विरोध इसलिए किया है कि वह लोगों को शाषण का शिकार बनाती है और दुनिया के मजदूरों तथा दलितों को एक झंड़े के नीचे एकत्र होने में बाधा डालती है। नया कवि उसका विरोध इसलिए करता है कि उसके कारण मानव-विवेक कुंठित हो जाता है। नई कविता सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का प्रयास करती है। इसके कारण ही नई कविता का सामाजिक यथार्थ से गहरा संबंध है। परंतु नई कविता की यथार्थवादी दृष्टि काल्पनिक या आदर्शवादी मानववाद से संतृष्ट न होकर जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है। नई कविता द्विवेदी कालीन कविता, छायावाद या प्रगतिवाद की तरह अपने बने-बनाये मूल्यलादी नुस्ख़े पेश नहीं करती, बल्कि वह तो उसे जीवन की सच्ची व्यथा के भीतर पाना चाहती है। इसलिए नई कविता में व्यंग्य के रूप में कहीं पुराने मूल्यों की अस्वीकृति है, तो कहीं दर्द की सच्चाई के भीतर से उगते हुए नए मूल्यों की संभावना के प्रति आस्था। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है। नई कविता का स्वर अपने परिवेश की जीवनानुभूति से फूटा है। नई कविता में शहरी जीवन और ग्रामीण-जीवन-दोनों परिवेशों को लेकर लिखनेवाले कवि हैं। अज्ञेय ने दोनों पर लिखा है। जबकि बालकृष्ण राव, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, कुँवरनारायण सिंह, धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय आदि कवि की संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ शहरी परिवेश की हैं तो दूसरी ओर भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे कवि हैं जो मूलतः गाँव की अनुभूतियाँ और संवेदना से जुड़े हैं। इनके अतिरिक्त उसमें जहाँ घुटन, व्यर्थता, ऊब, पराजय, हीन-भाव, आक्रोश हैं, वहीं आत्मपीड़न परक भावनाएँ भी हैं। नई कविता का परिवेश अपने यहाँ का जीवन है। किन्तु उस पर आक्षेप है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, व्यक्तिवादी कुंठा और मरणधर्मिता है। जो पश्चिम की नकल से पैदा हुई है। नई कविता में पीड़ा और निराशा को कहीं-कहीं जीवन का एक पक्ष न मानकर समग्र जीवन-सत्य मान लिया गया है। वहाँ पीड़ा जीवन की सर्जनात्मक शक्ति न बनकर उसे गतिहीन करनेवाली बाधा बऩ गई है। लोक-संपुक्ति नई कविता की एक खास विशेषता है। वह सहज लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न कर रही है।
नई कविता ने लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। साथ ही साथ लोक-जीवन के बिंबों, प्रतीकों, शब्दों और उपमानों को लोक-जीवन के बीच से चुनकर उसने अपने को अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बनाया। कविता के ऊपरी आयोजन नई कविता वहन नहीं कर सकती। वह अपनी अन्तर्लय, बिंबात्मकता, नवीन प्रतीक-योजना, नये विशेषणों के प्रयोग, नवीन उपमान में कविता के शिल्प की मान्य धारणाओं से बाकी अलग है। नई कविता की भाषा किसी एक पद्धति में बँधकर नहीं चलती। सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग इसमें अधिक हुआ है। नई कविता में केवल संस्कृत शब्दों को ही आधार नहीं बनाया है, बल्कि विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों को स्वीकार किया गया है। नए शब्द भी बनालिए गये हैं। टोये, भभके, खिंचा, सीटी, ठिठुरन, ठसकना, चिडचिड़ी, ठूँठ, विरस,सिराया, फुनगियाना – जैसे अनेक शब्द नई कविता में धड़ल्ले से प्रयुक्त हुए हैं। जिससे इसकी भाषा में एक खुलापन और ताज़गी दिखाई देती है। इसकी भाषा में लोक-भाषा के तत्व भी समाहित हैं। नई कविता में प्रतीकों की अधिकता है। जैसे- साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूँछु? उत्तर दोगे! फिर कैसे सीखा डँसना? विष कहाँ पाया? (अज्ञेय) नई कविता में बिंब भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। नई कविता की विविध रचनाओं में शब्द, अर्थ, तकनीकी, मुक्त आसंग, दिवास्वप्न, साहचर्य, पौराणिक, प्रकृति संबंधी काव्य बिंब निर्मित्त किए गये हैं। जैसे- सामने मेरे सर्दी में बोरे को ओढकर, कोई एक अपने, हाथ पैर समेटे, काँप रहा, हिल रहा,-वह मर जायेगा। (मुक्तिबोध) नई कविता में छंद को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो-यह बात नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किये गये हैं। नये कवियों में किसी भी माध्यम या शिल्प के प्रति न तो राग है और न विराग। गतिशालता के प्रभाव के लिए संगीत की लय को त्यागकर नई कविता ध्वनि-परिवर्तन की ओर बढ़ती गई है। एक वर्ण्य विषय या भाव के सहारे उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत करते हुए लंबी कविता या पूरी कविता लिखकर उसे काव्य-निबंध बनाने की पुरानी शैली नई कविता ने त्याग दी है। नई कविता के कवियों ने लंबी कविताएँ भी लिखी हैं। किन्तु वे पुराने प्रबंध काव्य के समानान्तर नहीं है। नई कविता का प्रत्येक कवि अपनी निजी विशिष्टता रखता है। नए कवियों के लिए प्रधान है सम्प्रेषण, न कि सम्प्रेषण का माध्यम। इस प्रकार हम देखते हैं कि नई कविता कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण उपलब्धि है।