Tuesday, February 22, 2011

नई कविता का अतियथार्थवादी धरातल : डॉ. राम लखन मीना, हिंदी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.

यह सही है कि हर काव्यांदोलन अपने पूर्ववर्ती काव्य संस्कार से संघर्ष करते हुए जन्म लेता है, यानी वह अपने आप जन्म लेने वाले नहीं है। हिंदी कविता का इतिहास इसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है। छायावाद द्विवेदी युगीन काव्य संस्कार से, प्रगतिवाद छायावाद से तथा प्रयोगवाद प्रगतिवाद से अपनी पृथकता अवश्य रखने वाले हैं। नई कविता प्रयोगवादी मानसिकता के बहुत सारे तत्त्वों को स्वीकारते हुए आगे बढने वाली काव्यधारा है। पर नई कविता की पूर्व पीठिका के रूप में प्रयोगवाद का स्थान निर्विवाद है। १९४३ में ’तारसप्तक‘ का प्रकाशन हिन्दी काव्य संवेदना को पूर्णतः बदलने वाली साहित्यिक घटना के रूप में हमारे सामने है। लेकिन इसके पहले ही हिंदी कविता में प्रयोग के नए अंकुर फूटने लगे थे। अज्ञेय द्वारा संपादित ’तारसप्तक‘ के प्रकाशन के चार-पाँच वर्ष पूर्व ’तारसप्तक‘ के कवियों के अतिरिक्त केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे अनेक समर्थ कवि नए ढंग से काव्य रचना में तल्लीन रहे थे। पर उसके भी पहले निराला, पंत आदि की कुछ रचनाओं में परिवर्तन की सूचनायें मिल जाती थीं। डॉ. गिरिजाकुमार माथुर ने यह बात कही थी कि ’तारसप्तक‘ के प्रकाशन से पाँच वर्ष पूर्व ऐसी रचनाएँ हो रही थीं, सन् १९४० के आसपास के कृतित्व से वह आधुनिक स्वर सबल और स्पष्ट होकर सामने आ गया था। निराला की ’अनामिका‘, ’कुकुरमुत्ता‘ जैसी रचनाओं से और ’रूपाभ‘, ’उच्छृंखल‘, ’हंस‘ जैसी पत्रिकाओं के प्रकाशन से यह व्यक्त हो जाता है कि हिंदी में ’तारसप्तक‘ के पहले ही परिवर्तन की लहरें जोर पकडने लग चुकी थीं। १९४३ में ’तारसप्तक‘ का प्रकाशन इस बदली हुई मानसिकता की चरम परिणति है। नई कविता के विकास क्रम में सप्तक काव्य परम्परा की सशक्त भूमिका रही है जिनकी पहली सीढी अज्ञेय द्वारा संपादित ’तारसप्तक‘ ही है। यद्यपि सप्तकों के बाहर भी प्रतिष्ठित कवियों की रचनाएँ सर्वमान्य रही हैं तथापि ’तारसप्तक‘ से लेकर ’तीसरा सप्तक‘ तक का समय आधुनिक हिंदी कविता का सबसे अधिक गतिशील समय रहा है। प्रयोग अर्थात् काव्य-सत्य की खोज हिंदी कविता के इतिहास में ’तारसप्तक‘ के कवियों के सम्मिलित प्रयास ने परम्परागत काव्य-चिंतन पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। इसलिए अज्ञेय ने कहा है कि ’प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं।‘ स्पष्ट है कि इन कवियों का लक्ष्य काव्य-जगत् के अछूते संदर्भों का अनावरण करके अभिव्यक्ति का आयाम-विस्तार करना ही था। अतः यह सुविदित है कि आधुनिक हिंदी कविता को नया सौंदर्यबोध और नई अर्थवत्ता प्रदान करने में प्रयोगवाद की भूमिका अवश्य रही है। ’नई कविता के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस‘ शीर्षक साही का लम्बा लेल यहाँ विशेष उल्लेखनीय है। जहाँ तक काव्य सत्य की खोज का संबंध है, प्रयोगवादी कविता का कथ्य कवि की आत्मा से जुडा हुआ है, लेकिन समाज में कवि अपने वर्तमान से बिल्कुल असंतुष्ट है। सब कहीं पराजय ही पराजय नजर आती है। आशा की किरणें कहीं भी दिखाई नहीं देतीं। ऐसे संदर्भ में प्रयोगवादी कवि जीवन के कृष्ण पक्ष को ही सत्य मानकर उसकी विस्तृत अभिव्यक्ति के लिए तैयार हो उठता है। जहाँ भी प्रयोगवादी कविता सार्थक हो उठती है और समय के साथ जुड भी जाती है। प्रयोगवादी कवि अपनी कविता के माध्यम से आधुनिक मानव के वास्तविक जीवन-सत्य की तलाश कर रहे हैं ताकि कविता प्रयोगवादी बन गयी तथा उसने कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर नई-नई संभावनाओं को तलाशने के लिए उसके खुरदुरे रास्ते को अपना लिया। अतः प्रयोगवादियों के काव्य सत्य की तलाश दरअसल नए मानव की वास्तविकता की तलाश है या यों कहिए कि वह उसकी अस्मिता की तलाश है।
विद्रोह की अनिवार्यता यहाँ काव्य-सत्य को व्यापक बनाने हेतु नूतन प्रयोगों पर बल दिया। अतः प्रत्येक संवेदनशील एवं सृजनात्मक प्रतिभा के लिए प्रयोग की प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य बन गया। निराला में जिस विद्रोह का स्वरूप मिलता है और वह प्रयोगवादी कवियों में प्रयोग बन गया है। विद्रोह की अनिवार्यता का धक्का सबसे पहले काव्यगत ’एप्रोच‘ पर लगा जो अकाल्पनिक ’एप्रोच‘ कह सकते हैं। इस प्रकार नए प्रयोग और प्रतिक्रिया के बाहुल्य के साथ पूर्ववर्ती छायावादी तथा उत्तर छायावादी कविताओं से भिन्न जो कविता फूट पडी उसे आलोचकों ने प्रयोगवाद का नाम दिया। उसके मूल में विद्रोह की मानसिकता मौजूद है। वह नई दिशा की तथा नए संदर्भों की खोज करने वाली कविता है, उसमें पूर्ववर्ती काव्य संस्कार के प्रति निषेध या विद्रोह है जो इसका अनिवार्य अंग बन गया है। इसके परिणाम स्वरूप हिन्दी कविता का पूरा वातावरण ही बदल गया। बौद्धिक रुझान की प्रयोगवादी भूमिका प्रयोगवादी कविता ने हृदय के स्थान पर बुद्धि को अपनाया है। सामयिक जीवन के सभी पहलुओं पर इसकी दृष्टि बौद्धिक रही। मेरे ख्याल से बौद्धिकता अपने आप एक विशेष प्रकार की प्रयोगशीलता है, क्योंकि ’एमफसिस‘ बदलने के साथ-साथ कल्पना का तथा अनुभूति का वृत्त व्यक्त हुआ और इसकी आधारशिला बौद्धिक वृत्ति है। मतलब भावुकता के स्थान पर बौद्धिक चिंतन प्रबल बन गया। तो स्पष्ट है कि बुद्धि ने प्रयोगवादी कविता में आकर हृदय का स्थान ग्रहण किया; वह बौद्धिकता की छाया में विकास पाने लगी। कथ्य और शिल्प सबंधी सभी प्रवृत्तियों के पीछे एक प्रेरणा की भाँति यह बुद्धितत्व वर्तमान है। बुद्धि और हृदय का बौद्धिक संयोग इसलिए एक मुख्य तत्त्व बन जाता है। कठोर यथार्थ का धरातल उपर्युक्त बौद्धिक मानसिकता के कारण प्रयोगवादियों में यथार्थ-ग्राहिता शक्ति बढती गई। भावावेश के स्थान पर वस्तुवादी दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह इनमें हैं। उसका यथार्थ अपनी समकालीन जटिलता को जाहिर करने का यथार्थ है यानी एक प्रकार की प्रगतिशील मानसिकता है। यह समय के साथ संदर्भित होने का रवैया है और यही इसकी वह आधारशिला है जो नई कविता में आकर विस्तार पा गई थी। प्रयोगवाद के रूप में नई कविता का जो बीज यहाँ बोया था उसका पल्लवन द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त होने लगा। देश का सामाजिक- राजनीतिक पहलू यहीं रचना का विषय बनने लगता है। उसमें यथार्थबोध का पुट अवश्य है और उसका सम्बन्ध जीवन की वास्तविकता से है। इस प्रकार नई आवश्यकताओं एवं यथार्थों के धरातल पर अपनी अलग मानसिकता तैयार करना आधुनिक रचना की विशिष्ट उपलब्धि बन गई है। इसलिए कविता का यथार्थ युगीन एवं सामयिक बन जाताहै।वैयक्तिक गहराई काव्य में अनुभूति की प्रामाणिकता के संदर्भ में व्यक्ति- चिंतन का प्रारम्भ होता है। वह समष्टिबोध को अनदेखा करके या सामाजिकता को नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति नहीं। कविता के समस्त कलात्मक मूल्यों को बनाए रखने तथा परम्परागत- सैद्धान्तिक आग्रहों से मुक्त होने के लिए व्यष्टिपरक चिंतन की अनिवार्यता है। प्रयोगशील रचना में यह स्पष्ट होने लगा कि व्यक्ति के साथ-साथ समाज का भी अपना विशेष स्थान है। मुक्तिबोध, नेमीचन्द जैन आदि ने यह बात व्यक्त की है। जैसे, ’कविता समाज की सजीव इकाई के रूप में व्यक्ति को प्रधानता देती है, व्यक्ति के माध्यम से ही वह लोकमंगल तक पहुँचना चाहती है।‘ तो जाहिर होता है कि प्रयोगवादी कविता की व्यक्तिवादिता सामाजिकता से जुडी हुई है। वह दोनों का संतुलित रूप है। अज्ञेय ने इस बात को -’यह दीप अकेला, स्नेह भरा गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो‘ कहकर दुहराया है। अतः इस समय की कविता में वैयक्तिकता की जो तीव्रता है वह एक विशेष प्रकार की है जिसमें सामाजिकता की उपेक्षा बिल्कुल नहीं है। अतः नई कविता मेंजो वैयक्तिकता है उसकी शुरुआत प्रयोगवाद में ही हुई थी, इसमें कोई मतभेद नहीं।
आत्मवक्तव्य का मूल स्वर आत्मवक्तव्य से यही मतलब है कि नए व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की तलाश। इसका दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न आधुनिक भावबोध है। सामाजिक यथार्थ से सजग होने के साथ ही साथ युग-जीवन का अनास्थापूर्ण वातावरण इनकी कविताओं में मुखरित है। यह युग-सत्य शमशेर की कविताओं में देखने को मिलता है। इसका समर्थन डॉ. धर्मवीर भारती ने भी किया है। ’दूसरा सप्तक‘ में आते-आते यथार्थ जीवन की जो पकड पाने को मिलती है वह काव्य में सम्प्रेषित करना भी है। इसी से कविता में युग-चेतना जीवन्त होने लगती है। दूसरी बात बौद्धिकता का विकास है। बुद्धिवादिता ने उसे बाह्य संघर्ष के लिए प्रेरणा दी है। अलावा इसके ’दूसरा सप्तक‘ रोमांटिक परिधान की दृष्टि से भी अधिक मनोरम है। ’दूसरा सप्तक‘ के प्रकाशन के साथ ही उसके पक्ष और विपक्ष पर विद्वानों का दल खडा हो गया। सप्तक काव्य के कथ्य और शिल्प को लेकर वहाँ विभिन्न मत प्रकट किए गए हैं। इस चर्चा को अर्थवत्ता प्रदान करने में कुछ लघु पत्रिकाओं का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। उन पत्रिकाओं में प्रमुख है, ’नए पत्ते‘, ’नई कविता‘, ’प्रतीक‘, ’निकष‘, ’अर्चना‘ आदि। इनमें ’नई कविता‘ नामक पत्रिका के प्रकाशन ने हिंदी काव्य जगत् में नई कविता की प्रतिष्ठा को और तीव्र बना दिया। इसमें नई रचनाओं के साथ ही नई काव्य-प्रवृत्तियों का गंभीर विवेचन भी हुआ है। तो कहने का मतलब नए साहित्य या नवलेखन को प्रतिष्ठित करने में ’नई कविता‘ जैसी पत्रिका की भूमिका निर्विवाद रही है। इसका सम्पादन अज्ञेय और विजयदेव नारायण साही दोनों ने ही किया है। यों ’तीसरा सप्तक‘ के प्रकाशन के साथ नई कविता की सर्वस्वीकृति हो जाती है जो मूलतः एक परिस्थिति के भीतर पलते हुए मानव हृदय की ’पर्सनल सिचुएशन‘ की कविता है। नई कविता पूर्ववर्ती सप्तक कालीन कविताओं से आगे का विस्तार है जिसने समग्रता के साथ सामयिक जीवन को नई संवेदना के धरातल पर स्वीकारा है। यह व्यक्ति मन की प्रतिक्रिया होने के साथ-साथ आधुनिक जटिल जीवन का दस्तावेज है। नई कविता का स्वर वैविध्यपूर्ण है तथा उसका स्वरूप जीवन के नंगे यथार्थ से उभरा है। व्यक्ति और समाज के बीच कोई लकीर वह नहीं खींचती; कथ्य और शिल्प के सामंजस्य पर नई कविता जोर देती है। वह आधुनिक मानस की सहज परिणति है। वह जीवन को एक विशेष प्रकार से देखती है, उसकी दृष्टि ऋषिदृष्टि है। नई कविता इसलिए बहुआयामी है। इसकी चर्चा विसंगतिबोध, व्यवस्था का आतंक, अस्वतंत्रता, विद्रोह की अनिवार्यता, आधुनिक भावबोध, सम्प्रेषणीयता, मानवताबोध जैसे विभिन्न आयामों से ही पूर्ण हो जायेगी। अतः इसका धरातल अतियथार्थवादी कहना समीचीन है।
साहित्य की उपयोगिता सामाजिक संदर्भों में क्या हो; कैसी हो, पर हमेशा विमर्श होता रहा है। पूर्वी और पश्चिमी साहित्यिक चिन्तक इस पर अपनी अलग-अलग राय देते दिखाई देते हैं। इस बात पर जोर प्रमुखता से दिया जाता रहा है कि साहित्य किसी न किसी रूप में मानव हित में, समाज हित में कार्य करता है। चूँकि साहित्य की प्राचीन एवं लोकप्रिय विधा के रूप में ‘पद्य’ हमेशा से समाज में स्वीकार्य रहा है। पद्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन तक का कार्य कवियों ने कर दिखाया है। सामाजिक संदर्भों में देखें तो सीमा पर, रणक्षेत्र में लड़ते वीर जवानों को, खेतों में काम करते किसानों, मजदूरों को, सोई जनता, बेखबा सत्ता को झकझोरने को कवियों ने हमेशा कविता को हथियार बनाया है। देखा जाये तो श्रम और वाणी का सम्बन्ध सदा से ही घनिष्टता का रहा है। भले ही कई सारे श्रमिक कार्य करते समय निरर्थक शब्दों को उच्चारित करते हों पर उन सभी का मिला-जुला भाव ‘काव्य रूप’ सा होता है।
साहित्य सार्थक शब्दों की ललित कला है। अनेक विधाओं में मूल रूप में कहानी-कविता को समाज ने आसानी से स्वीकारा है। दोनों विधाओं में समाज की स्थिति को भली-भांति दर्शाने की क्षमता है। पूर्व में कविता जब भावों, छन्दों, पदों की सीमा में निबद्ध थी तब प्रत्येक व्यक्ति के लिए काव्य रूप में अपने मनोभावों को व्यक्त करना सम्भव नहीं हो पाता था। नयी कविता के पूर्व प्रगतिशील, प्रयोगवादी, समकालीन कविता आदि के नाम से रची-बसी कविता ने मनोभावों को स्वच्छन्दता की उड़ान दी। नायक-नायिकाओं की चेष्टाओं, कमनीय काया का कामुक चित्रण, राजा-बादशाहों का महिमामण्डन करती कविता से इतर नयी कविता ने समाज के कमजोर, दबे-कुचले वर्ग की मानसिकता, स्थिति को उभारा है।
साहित्य जगत में नयी कविता का प्रादुर्भाव एकाएक ही नहीं हुआ। रूमानी, भक्ति, ओज की कविताओं के मध्य देश की जनता सामाजिक समस्याओं से भी दोचार हो रही थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन का चरम, स्वतन्त्रता प्राप्ति, द्वितीय महायुद्ध, भारतीय परिवेश के स्थापित होने की प्रक्रिया, राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता की सरगरमियाँ आदि ऐसी घटनायें रहीं जिनसे कविता भी प्रभावित हुए बिना न रह सकी। नागार्जुन, केदार नाथ, नरेश मेहता, मुक्तिबोध, दुष्यन्त कुमार सहित अनेक कवि काव्य-रचनाओं के माध्यम से आम आदमी की समस्या को उठा रहे थे तो कविता का भी नया दौर ला रहे थे। इन कवियों ने समाज के प्रत्येक वर्ग की पीढ़ा को सामने रखा। नयी कविता पर अतुकान्त, छन्दहीनता का आरोप लगता रहा किन्तु वह अपनी आम जन की बोलचाल की भाषा को अपना कर पाठकों के मध्य लोकप्रियता प्राप्त करती रही।
स्वतन्त्रता के बाद की स्थिति की करुणता को आसानी से नयी कविता में देखा गया। किसान हों, श्रमिक हों या किसी भी वर्ग के लोग हों सभी को नयी कविता में आसानी से दिखाया गया है। इन सभी का एक मूर्त बिम्ब निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ कविता में आसानी से देखा जा सकता है। यद्यपि निराला को नयी कविता का कवि नहीं स्वीकार किया गया है उनकी बाद की काव्य-रचनाओं को किसी भी रूप में नयी कविता से अलग नहीं किया जा सकता है-
‘देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर/नहीं छायादार/पेड़ वह जिसके तले बैठी/वह स्वीकार/श्याम तन, भर बँधा यौवन,/नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन/गुरु हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार।’ -निराला, वह तोड़ती पत्थर
नयी कविता की प्रमुख बात यह रही कि इसमें कवियों ने दबे कुचले शोषित वर्ग को ही अपना आधार बनाया है। नारी रूप में उसकी कोमल देह, कंचन कपोल, ढलकती आँखें, काले केश ही नहीं दिखे बल्कि उसकी मनोदशा, उसकी स्थिति को भी दर्शाया है। वेश्या जीवन हो या किसी एक्सट्रा की स्थिति कवियों ने उसे भी स्वर दिया है-
‘सिन्दूर पर हजारों के नाम/होंठ पर अठन्नी की चमक/गर्भ में अज्ञात पिता का अंश/फेफड़ों में टी.वी. की गमक/- एक रुपया/- नहीं दो रुपया/कौन?/सीता?/सावित्री?’ -मृत्युंजय उपाध्याय, नयी कविता के माध्यम से समाज की समस्या को आसानी से उभारा गया है। वर्ग-संघर्ष को, पूँजीवादिता को, इन सबके द्वारा जनित समस्याओं और अन्तर्विरोधों को नयी कविता में दर्शाया गया है। इन विषमताओं के कारण आम आदमी किस कदर हताश, परेशान है इसे नयी कविता ने अपना विषय बनाया है-‘काठ के पैर/ठूँठ सा तन/गाँठ सा कठिन गोल चेहरा/लम्बी उदास, लकड़ी-डाल से हाथ क्षीण/वह हाथ फैल लम्बायमान/दूरस्थ हथेली पर अजीब/घोंसला/पेड़ में एक मानवी रूप/मानवी रूप में एक ठूँठ।’ - मुक्तिबोध, इस चैड़े ऊँचे टीले पर-नयी कविता ने मध्यमवर्गीय मनःस्थिति को उठाया है। गहरी निराशा, अवसाद और अपनी विसंगति को आक्रोशपूर्ण स्वर दिया है। मानव-मन के साथ-साथ वह देश की व्यवस्था को भी समग्र रूप से संदर्भित करती है-‘मेरा देश-/जहाँ बचपन भीख माँगते जवान होता है/और जवानी गुलामी करते-करते बुढ़िया हो जाती है/जहाँ अन्याय को ही नहीं/न्याय को भी अपनी स्थापना के लिए सिफारिशों की जरूरत होती है/और झूठ ही नहीं/सच भी रोटरी मशीनों और लाउडस्पीकरों का मुहताज है।’
सामाजिक संदर्भों में नयी कविता ने हमेशा विषमता, अवसाद, निराशा को ही नहीं उकेरा है। सामाजिक यथार्थ के इस सत्य पर कि कल को हमारी नासमझी हमारे स्वरूप को नष्ट कर देगी, कुछ समाज सुधार की बात भी कही है। प्रकृति की बात कही है, प्रेम की बात कही है, सबको साथ लेकर चलने की बात की है। नयी कविता ने देश-प्रेम, मानव प्रेम, प्रकृति प्रेम को विविध रूपों में उकेरा है-अनायता की आँखें/‘और जब मैं तुम्हें अपनी गोद में लिटाये हुए/तुम्हारे केशों में अपनी/अँगुलियाँ फिरा रहा होता हूँ/मेरे विचार हाथों में बंदूकें लिए/वियतनाम के बीहड़ जंगलों में घूम रहे होते हैं।’/‘झाड़ी के एक खिले फूल ने/नीली पंखुरियों के एक खिले फूल ने/आज मुझे काट लिया/ओठ से/और मैं अचेत रहा
धूप में!’ - केदार, फूल नहीं रंग बोलते हैं; कहना होगा कि नयी कविता ने समाज के बीच से निकल कर स्वयं को समाज के बीच स्थापित किया है। समाज में आसानी से प्रचलन में आने वाले हिन्दी, अंग्रेजी, देशज, उर्दू शब्दों को अपने में सहेज कर नयी कविता ने समाज की भाषा-बोली को जीवन दिया है। इसके लिए उसने नये-नये प्रतिमानों को भी गढ़ा है-
‘सीली हुई दियासलाई की तरह असहाय लोग’ - नरेश मेहता / ‘नीबू का नमकीन रूप शरबत शाम’ – शमशेर / कैमरे के लैंस सी आँखें बुझी हुईं’ - भारतभूषण अग्रवाल. इस तरह के एक दो नहीं वरन् अनेक उदाहरण ‘नयी कविता’ में दृष्टव्य हैं। इससे लगता है कि नयी कविता ने ‘लीक’ तोड़ कर समाज के प्रचलित अंगों को अपने साथ समेटा है। नयी कविता ने कविता की सीमाबन्दी को तोड़कर कुछ नया करने का ही प्रयास किया है। आम आदमी के दंश, मानसिक संवेदना को समाज में स्थापित करने से आभास हुआ है कि नयी कविता इसी समाज की कविता है। जहाँ यदि राजा की यशोगाथा गाई जाती है वहीं वेश्या की मानसिकता भी समझी जाती है; जहाँ किसी यौवन के अंगों पर कविता होती है तो मजदूरन भी उसी का हिस्सा बनती है; साहित्यिकता के मध्य देशज शब्दों को, बोलचाल की आम भाषा-शैली को भी स्थान प्राप्त होता है। इस दृष्टि से नयी कविता समाज से अलग न होकर समाज से जुड़ी प्रतीत होती है। यूँ तो प्रत्येक कालखण्ड में आती कविता को नया ही कहा जायेगा किन्तु सहज, सर्वमान्य नयी कविता के इस रूप ने जिन प्रतिमानों, उपमानों की स्थापना की है उन्होंने सही अर्था में समाज की सशक्त इकाई -मानव- और मानव-मूल्यों को महत्व दिया है। नयी कविता निःसन्देह सामाजिक संदर्भों में खरी प्रतीत होती है।
नई कविता के लिए जगत्-जीवन से संबंधित कोई भी स्थिति, संबंध, भाव या विचार कथ्य के रूप में त्याज्य नहीं है। जन्म से लेकर मरण तक आज के मानव-जीवन का जिन स्थितियों, परिस्थितियों, संबंधों, भावों, विचारों और कार्यों से साहचर्य होता है, उन्हें नई कविता ने अभिव्यक्त किया है। नए कवि ने किसी भी कथ्य को त्याज्य नहीं समझा है। कथ्य के प्रति नई कविता में स्वानुभूति का आग्रह है। नया कवि अपने कथ्य को उसी रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, जिस रूप में उसे वह अनुभूत करता है। नई कविता वाद-मुक्ति की कविता है। इससे पहले के कवि भी प्रायः किसी न किसी वाद का सहारा अवश्य लेते थे। और यदि कवि वाद की परवाह न करें, किन्तु आलोचक तो उसकी रचना में काव्य से पहले वाद खोजता था-वाद से काव्य की परख होती थी। किन्तु नई कविता की स्थिति भिन्न है। नया कवि किसी भी सिद्धांत, मतवाद, संप्रदाय या दृष्टि के आग्रह की कट्टरता में फँसने को तैयार नहीं। संक्षेप में, नई कविता कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य और दृष्टि में सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और सृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। मनुष्यों में वैयक्तिक भिन्नता होती है, उसमें अच्छाईयाँ भी हैं और बुराईयाँ भी। नई कविता के कवि को मनुष्य इन सभी रूपों में प्यारा है। उसका उद्देश्य मनुष्य की समग्रता का चित्रण है। नई कविता जीवन के प्रति आस्था की रखती है। आज की क्षणवादी और लघुमानववादी दृष्टि जीवन-मूल्यों के प्रति स्वीकारात्मक दृष्टि है। नई कविता में जीवन का पूर्ण स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। जीवन की एक-एक अनुभूतियों को, व्यथा को, सुख को, सत्य मानकर जीवन को सघन रूप से स्वीकार करना क्षमों को सत्य मानना है। नई कविता ने जीवन को न तो एकांगी रूप में देखा।, न केवल महत् रूप में, उसने जीवन को जीवन के रूप में देखा। इसमें कोई सीमा निर्धारित नहीं की। जैसे- दुःख सबको माँजता है, और, चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना न जाने, किन्तु-जिसको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि, सबको मुक्त रखें। (अज्ञेय) नई कविता में दो तत्व प्रमुख हैं- अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि। वह अनुभूति क्षण की हो या एक समूचे काल की, किसी सामान्य व्यक्ति की हो या विशिष्ट पुरूष की, आशा की हो या निराशा की, अपनी सच्चाई में कविता के लिए और जीवन के लिए भी अमूल्य है। नई कविता में बुद्धिवाद नवीन यथार्थवादी दृष्टि के रूप में भी है और नवीन जीवन-चेतना की पहचान के रूप में भी। यही कारण है कि तटश्थ प्रयोगशीलता नई कविता के कथ्य और शैली-दोनों की विशेषता है। नया कवि अपने कथ्य के प्रति तटस्थ वृत्ति रखता है, क्योंकि उसका प्रयत्न वादों से मुक्त रहने का रहता है। इस विशेषता के कारण नई कविता में कथ्यों की कोई एक परिधि नहीं है। इसमें तो कथ्य से कथ्य की नई परतें उघड़ती आती हैं। कभी-कभी वह अपने ही कथनों का खण्डन भी कर देता है- ईमानदारी के कारण। नया कवि डूबकर भोगता है, किन्तु भोगते हुए डूब नहीं जाता। नई कविता जीवन के एक-एक क्षण को सत्य मानती है और उस सत्य को पूरी हार्दिकता और पूरी चेतना से भोगने का समर्थन करती है। अनुभूति की सच्चाई, जितना वह ले पाता है, उतना ही उसके काव्य के लिए सत्य है। नई कविता अनुभूतिपूर्ण गहरे क्षणों, प्रसंगों, व्यापार या किसी भी सत्य को उसकी आंतरिक मार्मिकता के साथ पकड़ लेना चाहती है। इस प्रकार जीवन के सामान्य से सामान्य दीखनेवाले व्यापार या प्रसंग नई कविता में नया अर्थ पा जाते हैं। नई कविता में क्षणों की अनुभूतियों को लेकर बहुत-सी मर्मस्पर्शी कविताएँ लिखी गई हैं। जो आकार में छोटी होती हैं किन्तु प्रभाव में अत्यंत तीव्र। नई कविता परंपरा को नहीं मानती। इन कवियों ने परंपरावादी जड़ता का विरोध किया है। प्रगतिशील कवियों ने परंपरा की जड़ता का विरोध इसलिए किया है कि वह लोगों को शाषण का शिकार बनाती है और दुनिया के मजदूरों तथा दलितों को एक झंड़े के नीचे एकत्र होने में बाधा डालती है। नया कवि उसका विरोध इसलिए करता है कि उसके कारण मानव-विवेक कुंठित हो जाता है। नई कविता सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का प्रयास करती है। इसके कारण ही नई कविता का सामाजिक यथार्थ से गहरा संबंध है। परंतु नई कविता की यथार्थवादी दृष्टि काल्पनिक या आदर्शवादी मानववाद से संतृष्ट न होकर जीवन का मूल्य, उसका सौंदर्य, उसका प्रकाश जीवन में ही खोजती है। नई कविता द्विवेदी कालीन कविता, छायावाद या प्रगतिवाद की तरह अपने बने-बनाये मूल्यलादी नुस्ख़े पेश नहीं करती, बल्कि वह तो उसे जीवन की सच्ची व्यथा के भीतर पाना चाहती है। इसलिए नई कविता में व्यंग्य के रूप में कहीं पुराने मूल्यों की अस्वीकृति है, तो कहीं दर्द की सच्चाई के भीतर से उगते हुए नए मूल्यों की संभावना के प्रति आस्था। नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है। नई कविता का स्वर अपने परिवेश की जीवनानुभूति से फूटा है। नई कविता में शहरी जीवन और ग्रामीण-जीवन-दोनों परिवेशों को लेकर लिखनेवाले कवि हैं। अज्ञेय ने दोनों पर लिखा है। जबकि बालकृष्ण राव, शमशेर बहादुर सिंह, गिरिजाकुमार माथुर, कुँवरनारायण सिंह, धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय आदि कवि की संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ शहरी परिवेश की हैं तो दूसरी ओर भवानीप्रसाद मिश्र, केदारनाथ सिंह, शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि ऐसे कवि हैं जो मूलतः गाँव की अनुभूतियाँ और संवेदना से जुड़े हैं। इनके अतिरिक्त उसमें जहाँ घुटन, व्यर्थता, ऊब, पराजय, हीन-भाव, आक्रोश हैं, वहीं आत्मपीड़न परक भावनाएँ भी हैं। नई कविता का परिवेश अपने यहाँ का जीवन है। किन्तु उस पर आक्षेप है कि उसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, व्यक्तिवादी कुंठा और मरणधर्मिता है। जो पश्चिम की नकल से पैदा हुई है। नई कविता में पीड़ा और निराशा को कहीं-कहीं जीवन का एक पक्ष न मानकर समग्र जीवन-सत्य मान लिया गया है। वहाँ पीड़ा जीवन की सर्जनात्मक शक्ति न बनकर उसे गतिहीन करनेवाली बाधा बऩ गई है। लोक-संपुक्ति नई कविता की एक खास विशेषता है। वह सहज लोक-जीवन के करीब पहुँचने का प्रयत्न कर रही है।
नई कविता ने लोक-जीवन की अनुभूति, सौंदर्य-बोध, प्रकृत्ति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। साथ ही साथ लोक-जीवन के बिंबों, प्रतीकों, शब्दों और उपमानों को लोक-जीवन के बीच से चुनकर उसने अपने को अत्यधिक संवेदनापूर्ण और सजीव बनाया। कविता के ऊपरी आयोजन नई कविता वहन नहीं कर सकती। वह अपनी अन्तर्लय, बिंबात्मकता, नवीन प्रतीक-योजना, नये विशेषणों के प्रयोग, नवीन उपमान में कविता के शिल्प की मान्य धारणाओं से बाकी अलग है। नई कविता की भाषा किसी एक पद्धति में बँधकर नहीं चलती। सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बोलचाल की भाषा का प्रयोग इसमें अधिक हुआ है। नई कविता में केवल संस्कृत शब्दों को ही आधार नहीं बनाया है, बल्कि विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों को स्वीकार किया गया है। नए शब्द भी बनालिए गये हैं। टोये, भभके, खिंचा, सीटी, ठिठुरन, ठसकना, चिडचिड़ी, ठूँठ, विरस,सिराया, फुनगियाना – जैसे अनेक शब्द नई कविता में धड़ल्ले से प्रयुक्त हुए हैं। जिससे इसकी भाषा में एक खुलापन और ताज़गी दिखाई देती है। इसकी भाषा में लोक-भाषा के तत्व भी समाहित हैं। नई कविता में प्रतीकों की अधिकता है। जैसे- साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होंगे, नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूँछु? उत्तर दोगे! फिर कैसे सीखा डँसना? विष कहाँ पाया? (अज्ञेय) नई कविता में बिंब भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। नई कविता की विविध रचनाओं में शब्द, अर्थ, तकनीकी, मुक्त आसंग, दिवास्वप्न, साहचर्य, पौराणिक, प्रकृति संबंधी काव्य बिंब निर्मित्त किए गये हैं। जैसे- सामने मेरे सर्दी में बोरे को ओढकर, कोई एक अपने, हाथ पैर समेटे, काँप रहा, हिल रहा,-वह मर जायेगा। (मुक्तिबोध) नई कविता में छंद को केवल घोर अस्वीकृति ही मिली हो-यह बात नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में विविध प्रयोग भी किये गये हैं। नये कवियों में किसी भी माध्यम या शिल्प के प्रति न तो राग है और न विराग। गतिशालता के प्रभाव के लिए संगीत की लय को त्यागकर नई कविता ध्वनि-परिवर्तन की ओर बढ़ती गई है। एक वर्ण्य विषय या भाव के सहारे उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत करते हुए लंबी कविता या पूरी कविता लिखकर उसे काव्य-निबंध बनाने की पुरानी शैली नई कविता ने त्याग दी है। नई कविता के कवियों ने लंबी कविताएँ भी लिखी हैं। किन्तु वे पुराने प्रबंध काव्य के समानान्तर नहीं है। नई कविता का प्रत्येक कवि अपनी निजी विशिष्टता रखता है। नए कवियों के लिए प्रधान है सम्प्रेषण, न कि सम्प्रेषण का माध्यम। इस प्रकार हम देखते हैं कि नई कविता कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

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